Book Title: Samaysar Vaibhav
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Jain Dharm Prakashan Karyalaya

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Page 196
________________ १५७ समयसार वैभव ( ३६७-४०१ ) ज्ञान की पुद्गल कर्म एव धर्म अधर्मादि से भिन्नता कर्म भी नहीं ज्ञान बन सके जो पुद्गल परिणाम मलीन । ज्ञान चेतना का स्वभाव है, अतः भिन्न है वह स्वाधीन । पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल, नभ, ये सब चेतन शून्य नितांत । अतः ज्ञान से भिन्न सदा ही स्वतः सिद्ध हैं जड़ निर्धान्त । ( ४०२-४०३ ) अध्यवसानों से ज्ञान की भिन्नता अध्यवसान अचेतन हैं जो पुद्गल कर्मों से निष्पन्न । ज्ञान रूप परिणमन न वे भी कर सकते रह कर चिन्नि । चेतन ज्ञायक है स्वभावतः सतत ज्ञान सम्पन्न अनूप । ज्ञान रहा करता ज्ञानी से अव्यतिरिक्त तादात्म्य स्वरूप । ( ४०४ ) सम्यग्दर्शन, शुचि संयम या अंग पूर्वगत सूत्र महान । धर्माधर्म प्रवज्या ये सब ज्ञान समाहित हैं, मतिमान ! जीव न आहारक बन सकता-माना जिसने उसे अमूर्त । कर्म और नो कर्म पौद्गलिक सर्वाहार जब कि है मूर्त । (४०२) मध्यवसान-विकारी भाव। अव्यतिथि-मिन। . .

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