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सर्व विशुरानाधिकार
( ३६० )
शास्त्रों से ज्ञान की भिन्नता ज्ञान-भाव श्रुत, शास्त्र-द्रव्य श्रुत, दोनों में भिन्नत्व अतीव । शास्त्र चेतना शून्य वस्तु है जो न स्वयं जाने निर्जीव । ज्ञान जब कि चैतन्य मयी है, शास्त्रों से जो भिन्न नितांत । यों शास्त्रों में ज्ञान सर्वथा भिन्न सिद्ध होता निर्धान्त ।
( ३९१ )
ज्ञान की शब्दों से भिन्नता शास्त्र समान शब्द भी जड़ है, ज्ञान भाव से भिन्न महान । पुद्गल की व्यंजन पर्यायों में गभित है शब्द, निदान । शब्द जान सकता न तनिक भी, जब कि ज्ञान चैतन्य स्वभाव । यों पौद्गलिक शब्द से निश्चित ज्ञान भिन्न है स्वतः स्वभाव ।
( ३९२-३९६ ) ज्ञान की आकृति एवं रूप रसादि से भिन्नता प्राकृतियां भी जितनी दिखती, वे क्या है ? पुद्गल संस्थान । चेतन का अस्तित्व न उनमें, अतः ज्ञान से भिन्न महान । प्राकृति या रस रूप, गंध वा स्पर्श प्रादि पुद्गल के वेश । ज्ञान सिद्ध नहिं हो सकते है-जिनमें नहीं चेतना लेश । (३९.) प्रतीव-बहुत ज्यादा । (३९२) संस्थान-रचना, प्राकार।