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समयसार-वैभव
( ४०८/१ )
निश्चय से शारिरिक लिग (वेश) मुक्ति मार्ग नही
गृह या बन में परिग्रहीत जो देहाश्रित होते हैं वेश । मूढ़ उन्हें ही मान मुक्ति पथ रत हों, जिसमें तथ्य न लेश । गर्दभ सिंह नहीं बन सकता धारण कर उसका परिवेश । अंतर शुद्धि बिना त्यों जन को लिंग मात्र से मुक्ति न लेश ।
( ४०८/२ )
यों भी निश्चय नय से चेतन ग्रहण न करता कुछ भी अन्य । तब कैसे ग्रहीत हो सकते देहादिक-जो पुद्गल जन्य ? जबकि देह का ही न त्याग या ग्रहण जीव को है स्वीकार । देहों के नाना वेशों को कर लें कैसे अंगीकार ?
( ४०६ ) पहन-तज परिपूर्ण देहगत अहंकार ममकार विकार । सम्यक्दर्शन ज्ञान चरण में रत हो पाते मुक्ति उदार । बाह्यभ्यंतर सर्व परिग्रह से बिहीन मुनि बन स्वाधीनमात्म साधना में रत होते प्रात्म सिद्धि के हेतु, प्रवीण !