Book Title: Samaysar Vaibhav
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Jain Dharm Prakashan Karyalaya

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Page 197
________________ सर्व विशुद्ध ज्ञानाधिकार १५८ ( ४०६ ) निश्चय से जीव पर वस्तु का त्याग ग्रहण नहीं करता स्वाभाविक या प्रायोगिक निज-गुण धर्मों से जीव कभी नपर का त्याग-ग्रहण करने को रखता है सामर्थ्य,प्रवीण । (४०७/१ ) एवं नहिं शुद्धात्म तत्वविद् वीतराग समदृष्टि उदारकिसी सचित्ताचित्त वस्तु का त्याग ग्रहण करता स्वीकार । निश्चय नय की दृष्टि निजाश्रित ही रहती है सतत अनन्य । तदनुसार निज भावों का ही त्याग ग्रहण करता चैतन्य । ( ४०७/२ ( व्यवहार नय से पर वस्तु का त्याग ग्रहण स्वीकृत है नय व्यवहार किंतु करता है पर के त्याग ग्रहण की बात । पर निमित्त आश्रित रहती है जिसको दृष्टि-सृष्टि अवदात । 'यह त्यागा, वह ग्रहण किया' यों भाव किया करता चैतन्य । किन्तु वस्तु का त्याग ग्रहण नहिं निश्चय नय में मान्य तदन्य । (४०७/१) तत्वविद्-तत्वमानी। (४०७२) प्रवात-निर्दोष ।

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