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सर्व विशुद्ध ज्ञानाधिकार
( ३०८ )
प्रत्येक द्रव्य अपने अपने गुण-पर्यायों का ही कर्ता है
जिन यात्मीय गुणों से होता स्वतः प्रत्येक द्रव्य उत्पन्न । वह उनसे अनन्य ही रहता, गुण न द्रव्य से होते भिन्न । स्वर्ण मुद्रिका आदि रूप धर ज्यों परिणमता विविध प्रकार । निश्चित ही वे मुद्रिकादि सब स्वर्णमयी होते साकार ।
त्यों अजीव या जीव द्रव्य में होते जो परिणाम विभिन्न । वे उनसे अनन्य ही होते-पर्यायों से द्रव्य न भिन्न । अभिप्राय यह है कि द्रव्य कहलाता है-गुण पर्ययवान । किंतु सहज तादात्म्य द्रव्य गुण पर्यय में रहता अम्लान । (३०९) तादात्म्य-अभिन्नता, एकत्व ।