Book Title: Samaysar Vaibhav
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Jain Dharm Prakashan Karyalaya

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Page 184
________________ १४ समयसास्म न ( ३४७/२ ) बाल्य काल में मैं बालक था, मैं ही युवा हुआ, नहि अन्य । बाल्य-यवावस्था में दिखता-भेद, किन्तु में वही अनन्य । यो अन्वय से नित्य सिद्ध है जबकि स्वीय प्रात्मत्व महान, भिन्न भिन्न तब कर्ता भोक्ता माने, वह मिथ्यामति जान । ( ३४७/३ ) जो यह मान चलें कि सर्वथा-क्षणिक तत्व हो रहता शुद्ध । उसका यह सिद्धांत द्रव्य को दृष्टि ठहरता दृष्ट विरुद्ध । अतः कर्म का करने वाला भोक्ता नहिं होता-सिद्धांत - मिथ्या पूर्ण प्रमाणित होता, जिनमत-दृष्ट विरुद्ध नितांत । ( ३४८ ) वस्तु मे अनेकांतात्मकता स्वतः सिद्ध है अभिप्राय यह है कि वस्तु है स्वतः सिद्ध गुण पर्ययवान् । इसीलिये गण दृष्टि नित्य-एवं अनित्य पर्याय प्रमाण । कर्ता-भोक्ता भिन्न भिन्न हो जिसका है ऐसा सिद्धांत । वह मानव मिथ्यात्व ग्रस्त है-अर्हन्मत विपरीत नितांत । (३४७/२) स्वीय-अपना.। (३४८) प्रहन्मत-महंत, भगवान का मत, अन मत ।

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