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समिरमानाधिकार
आत्मा कथंचित् नित्यानित्य है, सर्वथा नही यतः किन्हीं पर्यायों द्वारा-होता जीव नाश को प्राप्त । और किन्हीं द्वारा न नष्ट हो पर्यायों में रहकर व्याप्त । धोव्य दृष्टि में एक हि कर्ता, अध्न व दृष्टि से भिन्न नितांत । यों कर्त्त त्व विषय में निश्चित, सिद्ध नहीं होता एकांत ।
वस्तु अनेकांतात्मक है इस प्रकार कुछ पर्यायों से चेतन होता नष्टोत्पन्न । कुछ से स्थिर रहता, यों वेदक वही या कि होता तद्भिन्न । कर्ता-भोक्ता वही ठहरता शाश्वत अन्वय दृष्टि प्रमाण । पर्यायों को दृष्टि उभय में रहता है भिन्नत्व महान ।
(३४७/१)
अनित्यकांत में दोषोभावन 'कर्ता से भोक्ता सदैव ही निश्चित होता भिन्न नितांत' क्षण भंगुर पर्याय निरख यों जिसमें ग्रहण किया एकात । उसका यह सिद्धांत मांत है, अतः जीव वह मिथ्यादृष्टि । जिनमत वा प्रमाण से मिथ्या-क्षणिक बाद की दिखती सृष्टि । (३४५) श्रीब्य-टिकने वाला, । ३४६ वेवक-अनुभव करने वाला । मन्वय-जिसका जिससे लगातार संबंध हो उस सातारधीयवाही हैं।