Book Title: Samaysar Vaibhav
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Jain Dharm Prakashan Karyalaya

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Page 187
________________ सर्व विशुद्ध कानाधिकार १४८ ( ३५६ ) उल्लिखित कथन का दृष्टात द्वारा समर्थन चूना स्वतः शुक्ल है, नहि वह भित्ति कृत हुआ शुक्ल नवीन । त्यों चेतन नहि ज्ञायक पर से, वह है ज्ञानमयो स्वाधीन । पुतने पर ही नहि चूने में आता शुक्ल पने का भाव । त्यों पर द्रव्य ज्ञान से ही नहिं चेतन में है ज्ञायकभाव । ( ३५७-३५८ ) चने में ज्यों भित्ति प्रादि से शुक्ल भाव नहि हो उत्पन्न । त्यों दर्शक नहि पर दर्शन से, दर्शक स्वयं दृष्टि-सम्पन्न । चूना स्वतः श्वेत, नहिं परकृत-वह शुक्लत्व भाव को प्राप्त । त्यों संयत चेतन स्वभाव से, नहि पर त्यागवृत्ति-संप्राप्त । ( ३५६-३६० ) चूने में शुक्लत्व स्वतः है, नहिं वह पर कृत शुक्ल, प्रवीण ! त्यों पर श्रद्धा जन्य न दर्शन, दर्शन की सत्ता स्वाधीन । अभिप्राय यह है कि वस्तुतः दर्शन ज्ञान चरित्र निधान - जीव स्वतः स्वाभाविक ही है, नहि पर कृत हैं वर्शन ज्ञान ।

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