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बंध-अधिकार
( २३७/१ )
बध का स्वरूप बाह्याभ्यंतर कारण पाकर करता जीव मलिन परिणाम । तन्निमित्त पुद्गल अणुओं में भी, विकार होता अविराम । जल-पयवत् जड़ चेतन का तब हो संश्लेष रूप संबंध । प्रालिगित हों उभय परस्पर, यही तत्व कहलाता बंध ।
( २३७-२३८ )
बंध का कारण और दृष्टांत धूलि बहुल धूसर प्रदेश में मुद्गरादि ले कर में शस्त्र-- तैलादिक मर्दन कर करता जब व्यायाम मल्ल निर्वस्त्रवांस, ताल, कदली दल, पर भी कर वह बारंबार प्रहार-- सचित, अचित द्रव्यों का करता छेदन भेदन विविध प्रकार।
( २३६ ) घात और प्रतिघातमयी है जिसका सब व्यापार प्रशांतइस व्यायामशील जन को-जो चेष्टमान है सतत नितान्तधूलि चिपकती क्यों कर तन में? प्रश्न यहाँ यह है गंभीरशस्त्र, प्रदेश, शरीर-क्रिया या अन्य हेतु क्या सोचें धीर !