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संघ-अधिकार
( २५५-२५६ )
कर्मोदय में ही होते है सुख दुख समुत्पन्न, मतिमान ! उन्हें कौन दे सकता? यह तो भ्रम है-कोई कर प्रदान । हमें तुम्हें सुख दुख का दाता-अन्य नहीं कोई, सम्भ्रान्त । स्वकृत कर्म फल हो पाते है संसारी जन सकल नितांत ।
( २५६-२५७ ) सुख-दुख में हम-तुम निमित्त है, वे यद्यपि हों कर्माधीन । उनमें हर्ष विषाद न कर वर-ज्ञानी रहता बंधन हीन । मरे, जिये या सुख दुख पाये जबकि जीव निज कर्माधीन'पर ने मारा या कि दुखाया' है यह मिथ्या मांति मलीन ।
( २५८-२५६ )
पर न मरे या दुखी न होवे-यह भी पूर्व कर्म फल जान । 'मैं मारा या दुखी किया नहिं तजो मानसिक मांति, निदान । सुखी दुखी में करता पर को एवं अहंकार वश दोन--
जीव शुभाशुभ कर्मों का ही बंधन करता नित्य नवीन । (२५५) समुत्पन्न-पैथा।