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समयसार - वैभव
( २६६ )
अध्यवसान सम्पूर्ण अनर्थों की जड़ है
पर को सुखी दुखी में करता, बाँधूं या कि करूं उन्मुक्त यही वासना तव निर्थिका - मिथ्या महाभ्रांति संयुक्त । इस वश चेतन हो रहता है मिथ्या अहंकार में लीन । कर्म बंध कर भव संतति में भटक रहा बन भ्रांत मलीन ?
( २६७ )
अध्यवसान स्वार्थ क्रियाकारी नही है
अध्यवसानों के निमित्त से कर्म बंध करते जन भ्रांत | कितु मुक्ति पथ का श्राश्रय ले बंधविहीन बने निर्भ्रान्त : हे प्रिय ! यदि यह नियम सत्य है जिन वर्णित शंकातिक्रांत । फिर तू ने क्या किया अन्य प्रति बन कर व्यर्थ विकाराकांत
( २६८ ) अध्यवसानो की भर्त्सना
कहें कहाँ तक अध्यवसानों की दुख गाथा तुम्हें, नितांत । इन वश जीव जहां भव धरता होता वहीं सदा दिग्भ्रांत । देव नरक नर तिर्यग्गति में हो संप्राप्त शुभाशुभ देह । आत्म उसे ही मान प्रांति वश, पुण्य पाप में करतास्नेह ? (२६६) उन्मुक्त - बंधन मुक्त, । मिर्विकाव्य..