Book Title: Samaysar Vaibhav
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Jain Dharm Prakashan Karyalaya

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Page 157
________________ ध-अधिकार ११८ ( २७४ ) अभव्य के मुक्त न होने का कारण उस अभव्यजन का क्या कहना, जो न मक्ति माने मति भ्रांत । प्राचारांग आदि श्रुत पढ़कर भी रहता दिग्भ्रांत नितांत । शास्त्र पठन से लाभ क्या हुअा, रुची न जिसको प्रात्मविशुद्धि ? बाह्य क्रिया साधन में हो जो उलझा रहता है ममबुद्धि । ( २७५ ) अभव्य की धार्मिक श्रद्धा का उद्देश्य यद्यपि करता है अभव्य भी धर्म कर्म पर दृढ़ श्रद्धान । वह लाता प्रतीति भी उरमें, रुचता उसे धर्म परिज्ञान । अनुष्ठान से धर्म स्पर्श कर देव- वंदना करता दीन । कितु विषय सुख प्राप्ति हेतु ही, नहीं कर्म क्षय हेतु मलीन । ( २७६ ) व्यवहार धर्म का स्वरूप सम्यग्दर्शन कहा जिन कथित तत्वों का करना श्रद्धान । प्राचारांगादिक सूत्रों का पटन मनन ही सम्यक्ज्ञान । षट्कार्यों की रक्षा करना है सम्यक्चारित्र ललाम । यों व्यवहार धर्म वणित है श्री जिन वचन द्वार अभिराम । (२७५) अनुष्ठान-किसी इष्टफल के निमित्त देव की माराधना करना। (२७६) लमाम-सुन्दर । मनिराम-सुनदर।

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