________________
१२५
समयसार-वैभव
मोक्षाधिकार
( २८८ )
दृष्टान्त द्वारा बंध का स्पष्टीकरण
लोह शृंखलाबद्ध पड़ा इक-कारागृह में जन संभ्रांत । मृदु-कठोर, दृढ़ -शिथिल-बंध को सर्व स्थिति संज्ञात नितांत । यों युग बीते पारतन्त्र्य में पीड़ाओं को सहते मार । मुक्ति हेतु फिर भी न यत्न कर वह रहता है बंध चितार ।
( २८६-२६० ) बंध का ज्ञान करने से ही मुक्ति नहीं मिलती एवं युग युगांत में भी वह कैसे हो सकता स्वाधीनमोह श्रृंखला काट यत्न कर नहि यावत् हो बंधन-हीन ? त्यों यदि प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभागबंध सब हों परिजात । फिर भी कर्मों का दृढ़ बंधन बिना यत्न कटता नहि मात !