________________
समयसार-वैश्य
( २६०-२६१ ) 'पर को सुखी दुखी मै करता' यू होता जो अध्यवसान । पुण्य-पाप कर्मों का बन्धक वह बन रहता सूत्र-प्रमाण । मै जीवों को मारूं अथवा उनको दूं जीवन का दान । यह भी पाप-पुण्य बंधक है-समुद्भूत जीवाध्यवसान ।
( २६२--२६३ ) हिसादि पराश्रित न होकर अपने भावों पर निर्भर हैं जीव मरें या जियें, उन्हें मारो-मतमारो; किंतु, प्रवीण ! अध्यवसान भाव तब होते निश्चय बंधन हेतु मलीन । हिंसा सम मिथ्या भाषण या करना ग्रहण अदत्तादान । मैथुन और परिग्रह-भावों से अनुरंजित जीव-निदान
( २६४ ) सविकारी बन अशुभ रूप में परिणत हो बन जाता म्लान । तनिमित्त पापास्रव पूर्वक बंधन में होता अवसान । एवं सत्य, अचौर्य ब्रह्म, या अपरिग्रह में शुभ परिणाम
जो होते .वे पुण्यबंध के हेतु कहे श्रीजिन-निष्काम । (२६०) मध्यवसान-विकारी न समुद्भूत-उत्पन्न हुआ।