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बंध-अधिकार
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( २६५/१ ) वाह्य वस्तुओं के आलबन से अध्यवसान होते है और अध्यवसानों से
बध होता है जीवों में जितने भी होते अध्यवसान भाव उत्पन्न । वे सब बाह्य वस्तुओं का ही प्रालंबन ले हों निष्पन्न । किंतु तनिक भी बाह्य वस्तु कृत बंध नहीं है क्वचित् नवीन । वह होता प्रज्ञापराध वश कलुषित अध्यवसानाधीन ।
( २६५/२ )
एक प्रश्न कर्म बंध यदि भावों से ही होता है सम्पन्न नितांत । बाह्य वस्तु का त्याग तदा क्यों करते है मुनि गण संभ्रांत ? राज्य-पाट, धन वैभव परिजन और स्वजन तज कर वनवास । तीर्थकर पद प्राप्त व्यक्ति भी बाह य संग तज बर्न उदास ।
( २६५३ )
प्रश्न का समाधान अध्यवसानों का कारण है बाह्य वस्तु का संग मलीन । अतः त्याज्य है; किंतु बंध हो स्वाध्यवसानाश्रित ही हीन । यद्यपि अध्यवसान बिना नहि बाह्य वस्तु कृत बंध नवीन । फिर भी अध्यवसान त्याग हित बाह्य संग है त्याज्य मलीन । (२६५) प्रतापराध-मतिम गम्य दोष। (२६५/३) स्वाध्यवसानाधित-अपने
विकारी भावोंपाभितात्याय-छोड़नेमोम्बा . .