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बंध-अधिकार
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( २४६ )
सम्यक्दृष्टि को बंध क्यों नहीं होता त्यों सुदृष्टि के मन वच तन से संबंधित सब क्रिया कलापवीतराग परणति के कारण नहिं बनते बंधन-अभिशाप । रागादिक दुर्भाव बंध के कारण है, रह उनसे दूर--- वह स्वच्छन्द करता प्रवृत्ति नहि, जिससे बंध न होता क्रूर।
( २४७ ) सम्यक् और मिथ्यादृष्टि की श्रद्धा मे अतर 'मै परको माया पर से मारा जाऊँ यों अनजानमांति विवश जो नहीं समझता तत्व रहस्य निपट नादान । वह संमूढ, मूढ, मिथ्यात्वी या बहिरातम है दिग्भांत । इससे भिन्न सुदृष्टि वस्तुतः रखता सत् श्रद्धान नितांत ।
( २४८-२४६ ) प्राय कर्म को परिसमाप्ति ही कहलाता है मरण, निदान । तू न प्राय क्षय कर भी कहता 'मैं पर को मारा' अनजान ! यतः मरण श्रीमज्जिनेन्द्र ने कहा प्रायुका ही अवसान--
प्रायु न क्षय कर सकता कोई रख कर भी सामर्थ्य महान । (२४७) संभू-मोहो । सत्-सम्यक्, ठीक । (२४८) अवसान-प्रस ।