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निर्जराधिकार
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( २२६---२२७ ) । ज्ञानी विषय सुख हेतु कर्म न कर उसके फल का
भोक्ता भी नही बनता वही व्यक्ति जब वृत्ति हेतु नहि सेवा करता, बन स्वाधीन । तब नृप भी सुख सामग्री से वंचित करता उसे प्रवीण । त्यों ही सम्यक्दृष्टि न करता जब विषयों हित कार्य सकाम । तब कुछ भी फल दान न देकर कर्म प्रकृतियाँ लें विश्राम ।
( २२८ )
सम्यक्दृष्टि की नि शंकता सम्यक्दृष्टि सदा रहता है जीवन में निःशंक नितांत । अतुल प्रात्म वैभव बल पाकर निर्भय रहता बन निर्घात । इह-परलोक, अगुप्ति, अरक्षा, मरण, वेदना या अातंक । अकस्मात् इन सप्तभयों से स्वतः मुक्त हो, बनें निशंक ।
( २२६ )
उसकी निःशकता निर्जरा काकारण मागम वणित दुःख हेतु हैं समुत्पन्न चैतन्य विकार । तथा कथित मिथ्यात्व अविरमण योग कषाय बंध के द्वार । इन्हें बंद कर विरत भाव रख करता चिदानंद रस पान । संवर पूर्वक बद्ध कर्म का यूं करता क्रमशः अवसान ।