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समयसार-वैभव
( १६३/३ ) विषम कषायी जीव मुक्त नही हो सकता जिसके मन वच काय कषायों या विषयों में रहें निमग्न । वह संसारासक्त मुक्त नहि हो सकता होकर भी नग्न । साधुजनों की सतत साधना रहती प्रात्म सिद्धि के अर्थ । स्वानुभूति रत बन जाने पर पुण्य पाप की चर्चा व्यर्थ ।
स्वानुभूति रत रह न सके तो उसका रखकर लक्ष्य महानव्रत तप संयम शील साधना-लीन रहे जिन वचन प्रमाण । यह व्यवहार मुक्ति-पथ-साधन प्रथम भूमिका में अभिरामइसे त्याग स्वच्छंद बना तो कहाँ मिलेगा फिर विश्राम ?
इति पुण्यपापाधिकारः