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निर्जराधिकार
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( २१६/२ ) प्रति पल नष्ट हो रहे वेदक, वेद्य-भाव पर्याय विकार । नश्वर शोलों में ज्ञानीजन नही उलझ ते बन सविकार । पर्यायाश्रित मतिभ्रम होता, उसे क्षीण कर त्वरित प्रवीण । ज्ञानी शुद्ध स्वभाव भावका अनुभव कर रहता स्वाधीन ।
( २१७) सुख दुख कर्म फलों मे ज्ञानी राग द्वेष नही करता इंद्रिय भोगों के निमित्त से देहाश्रित सुख दुख हों म्लान । रागद्वेष जीवाश्रित होते, बंध हेतु द्वय अध्यवसान । नहि संसार देह भागों में ये ज्ञानी के हों उत्पन्न । वह रहता ज्ञायक भावाश्रित, वरविराग वैभव सम्पन्न ।
(२१८ ) ज्ञानी को नवीन कर्मों का बंधन होने का कारण यतः जानता वह चेतन को पुद्गलादि द्रव्यों से भिन्न । फलतः ज्ञानी पर द्रव्यों में राग द्वेषकर हो नहि खिन्न । कर्ममध्य रहकर भी यों वह कर्म रजों में हो नहि लिप्त । यथा पंक में पड़ा स्वर्ण शुचि-रहता उसमें सदा अलिप्त । (२१७) मध्यवसान-विकार । (२१८) पंक कीचड़।