Book Title: Samaysar Vaibhav
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Jain Dharm Prakashan Karyalaya

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Page 140
________________ समयसार-वैभव ( २१६ ) अज्ञानी के बंध होने का कारण उद्यानों में कुसुम निरख ज्यों बाल मचलता कर अनुराग । मोह विवश अज्ञानी भी त्यों पर द्रव्यों में करता राग । कर्म बद्ध वह पहिले ही है, फिर करता, दुर्भाव नितांत । फलतः कर्मबद्ध हो रहता यथा लोह कर्दम-पाक्रांत । ( २२०-२२१ ) ज्ञानी का ज्ञान अन्य के द्वारा अज्ञान रूप नही परिणमता शंख सचित्ताचित्त द्रव्य का भक्षक है यद्यपि अविराम । किन्तु स्वयं का शुक्ल भाव तज वह पर कृत होता नहि श्याम । त्यों ज्ञानी भी विरत भाव से विविध वस्तु का कर उपभोग । नहिं अज्ञान रूप परिणमता स्वात्माश्रित जिसका उपयोग । ( २२२--२२३।१ ) प्राणी प्रज्ञापराध स्वयं ही वश अज्ञान रूप परिणमन करता है। यथा शंख शुक्लत्व त्याग जब स्वयं परिणमें कृष्ण स्वरूप । उसकी यह परणति उसमें ही हो रहती है सहज विरूप । त्यों प्राणी प्रज्ञापराध वश करता जब रागादि विकार । तब प्रज्ञान रूप परिणम कर अज्ञ स्वयं बनता सविकार । (२१९) लोह लोहा । कर्दम-कोचढ़। (२२२) प्रतापराध-मतिप्रम।

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