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भवराधिकार
(१६० )
संवर का क्रम राग द्वेष का मूल जिन कथित कर्मशक्तियाँ ही है म्लान । जो मिथ्यात्व कषायादिक जड़रूप, कथित है अध्यवसान । इनके उदय काल रागादिक भाव जीव कर विविध प्रकार । कर्म बन्ध करता, कर्मों से , देह, देह-प्रतिफल संसार ।
(१६१) रागद्वेष मोहादि विकारी भाव सतत प्रास्रव के द्वार । ज्ञानी बने निरास्त्रव, इनका कर प्रभाव, निज रूप संभार । यतः विना कारण न कार्य हो यही प्राकृतिक वस्त-विधान । प्रास्त्रव भाव विकार न हों तो, प्रास्त्रव का भी हो अवसान ।
( १९२)
सवर से लाभ कर्मों का पालव रुकने से, नो कर्मों का भी अविरामहोता सहज विराम नियम से, प्रात्म तभी पाता विश्राम । कर्म तथा नो कर्मो का जब संवर हो परिपूर्ण पवित्र । तब संसार संसरण का भी अंत स्वयं हो जाता, मित्र !
इति संवराधिकार
(१९०) मध्यवसान-बिकारी भाव । इसके यो मद हैं १ जीव गत २ पुद्गलगत । जोवगत मध्यवसान-मिथ्यात्व रागढवादि भाय। पुदगल-मध्यवसान-मिथ्यात्व कषायादि शक्ति परिणत कर्म प्रकृतियां। प्रतिफल-जो बदले में प्राप्त हो। (१६१) पत:-क्योंकि। (१९२) विराम-कावट । विश्राम-शांति । संसरण-परिभ्रमण ।