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समयसार-वैभव ( १८७ ) सवर कब और किस प्रकार होता है ? शुभ या अशुभ वचन मन तन को वश प्रवृत्तियाँ कर निःशेष निजस्वरूप में निज के द्वारा शांत भाव से करें प्रवेश । सम्यक् दर्शन ज्ञान चरणयुत् सतत स्वानुभवलीन प्रवीणअन्य वस्तु को बांछात्रों से रहकर विरत स्वस्थ स्वाधीन ।
( १८८ ) बाह्याभ्यंतर सर्व संग से होकर पूर्ण मुक्त, निष्काम । अात्म द्वार पाकर निजात्म को उसमें ही करता विश्राम । कर्म और नो कर्म द्रव्य पर नहिं किंचित् भी देकर ध्यान । अनुपम प्रात्मध्यान रत होकर करता चिदानन्द रसपान ।
( १८६) वह शुद्धात्मतत्त्व का ज्ञाता दृष्टा स्वानुभूति संलीन । प्रात्माश्रय ले बन जाता है-पावन कर्म कलंक विहीन । संवर की बस यही रीति है-ज्ञाता दृष्टा रह अम्लान ।
रागद्वेष मय सर्व विकृति तज करना चिदानंद रस पान । (१८७) नि:शेष समस्त ।