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आसवाधिकार
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( १७० )
ज्ञानी निरास्रव क्यों है ? ज्ञानी जीव निरास्त्रव रहता, यतः बंधके कारण चारमिथ्यादर्शन अविरत्यादिक, पूर्व किया इनका निर्धार । अज्ञानी इनमें रत होकर बंध किया करता बन म्लान । नहि बंधन की कारण होती ज्ञानी की परणति अम्लान ।
( १७१ ) ज्ञानी को आस्रव कब और क्यों होता है । ज्ञानी को जो किचित् प्रास्रव-बंध कहा, उसका यह अर्थजब तक सूक्ष्म कषायें रहतीं तत्कृत कर्म बंध भी सार्थ । जब जघन्य ज्ञानादि गुणों कर परिणत होता जीव, प्रवीण ! तब कषाय कर बंध रहता; यूं-निःकषाय ही बंधनहीन ।
( १७२/१ )
शका-समाधान जब कषाय नहि नष्ट हुई तब कैसे ज्ञानी है निर्बन्ध ? भव्य ! न सद् दृग ज्ञान चरण से कभी जीव को होता बंध । किन्तु जघन्य भाव परिणत हो जब रत्न त्रय कर्माधीन--
तब होती कर्मास्त्रव एवं बंधमयी परिणति भी हीन । (१७०) अम्लान-शुद्ध।