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( १८० / १ )
त्यों चेतन जब निजस्वरूप से विचलित होकर कर्माधीनपूर्व बद्ध कर्मोदय कारण राग द्वेष कर बनें मलीन । ज्ञानी श्रात्रव बंध न करता, श्रज्ञानी रागादि विकारकर ज्ञानावरणादिक कर्मों से बँधता है विविध प्रकार |
( १८०/२ ) ज्ञानी का यह अर्थ कि जो है रागद्वेष मोहादि विहीन । वीतरागता बिना न होती कभी शुद्ध परणति स्वाधीन । शास्त्र ज्ञान से ग्रात्म तत्व को समझ, न कर मिथ्या श्रद्धान । पाप कषाय प्रवृत्ति विरत हो, सम्यक्ज्ञानी वही महान ।
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इति आवाधिकारः