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समयसारस्वैनब
( १६० )
किमाश्चर्यमत परम् सर्वज्ञान दर्शन स्वभाव से होकर भी सम्पन्न, प्रवीण । स्वापराध वश जीव कर्मरज-पाच्छादित हो बना मलीन । चिर प्रज्ञान भाव से पीड़ित भ्रमित हुप्रा सारा संसार । होकर भी विज्ञान धनमयी स्वात्म तत्व जाने नहि-सार ।
( १६१/१ ) वास्तव में आत्मविकार होना ही गणो का धात है कारण है सम्यक्त्व मुक्ति का प्रतिपादित जिनवचनप्रमाण । प्रति पक्षी मिथ्यात्व उसी का बंधा हुवा दुष्कर्म महान । उस मिथ्यात्व कर्म का होता जब जब उदय तीव्र या मन्द । जीव स्वरूप भलकर तब ही मिथ्यादृष्टि बनै मतिमंद ।
( १६०२ )
मिथ्यात्व द्वारा सम्यक्त्व की हानि मद्य पान कर यथा शराबी होकर मत बने उन्मत्त । हा हा हू हू ही ही करता-फिरता बना विकारासक्त । त्यों मिथ्यात्व कर्मवश चेतन भूल रहा शुद्धात्म स्वरूप । अहंकार ममकार मगन हविषयातुर बन रहा विरूप ।