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का-कर्माधिकार
( ८७/१ ) मिथ्यात्वादि जीव के है या पुद्गल के ? मिथ्यात्वादि जीव के कहते भगवन् ! तुम अनन्य परिणाम । फिर उनही को पुद्गल के भी घोषित करते क्यों अविराम ? हमें समझ नहि आता यह तब कथन परस्पर नियम विरुद्ध । उन्हें जीव या पुद्गल के ही निश्चित कहियेगा अविरूद्ध ।
( ८७/२ ) मिथ्यात्वादि भाव जीव के हे और कर्मप्रकृति पौद्गलिक है । सुनो, भव्य ! इसमें रहस्य है एक नहीं मिथ्यात्वमलीन । अविरति, योग कषाय, जीव, वा जड़ गत हं द्वयभाव, प्रवीण ! जीव और पुद्गल दोनों में होते ये वैभाविक भाव । मिथ्या श्रद्धा भाव जीव का, इतर पौद्गलिक कर्म विभाव ।
( ८७/३ )
इसका दृष्टांत ज्यों मयूर का रूप झलकता जब दर्पण तल में अभिराम । तब मयूर रहता मयूर में, दर्पण में प्रतिबिम्ब ललाम । दर्पण का प्रतिबिम्ब उसी की परणति है, न मयूर स्वरूप । मिथ्या श्रद्धाभाव जीव का, है मिथ्यात्व प्रकृतिजड़रूप । (87/1) अनन्य-अभिन्न, तन्मयी, एकाकार । अविराम-तुरंत, फौरन, तत्काल ।
अबिरुद्ध-विरोष रहित । (87/2) इतर-दूसरा।