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कर्ता-कर्माधिकार
(६१) आत्मा के विकृत भावों के निमित्त से पुद्गल स्वयं ही कर्मरूप
परिणमता है ! शुद्धाशुद्ध भाव कर चेतन परिणमता जैसा-जिसबार । उन भावों का कर्ता भी वह निश्चित होता सर्व प्रकार। जब अशुद्ध भावों कर परिणत होता है चैतन्य मलीन । स्वतः तभी पौद्गलिक वर्गणा कर्मरूप परिणमें मलीन ।
जीव कर्मों का कर्ता अज्ञान से ही है मोह जनित अज्ञान प्रसित बन प्राणी स्वयं विकाराक्रांत । पर को निज, निज को पर, कल्पित मान भ्रमित हो रहा प्रशांत । रागद्वेष मोहादि विकृतियाँ कर्म निमित्तज है परिणाम । अपनाकर वह उन्हें कर्मका कर्ता बना हुवा अविराम ।
(६३ ) सम्यक्दृष्टि जीव कर्म का कर्ता नही बनता । अनुभव कर शुद्धात्तमत्त्व का ज्ञानी बन विनांति विहीन । परको अपना मान कभी वह होता नहि मिथ्यात्व-मलीन । निजको परका भी न बनाता वीतराग विज्ञान निधान ।
ज्ञाता दृष्टा बन रहने से कर्म प्रकारक है संज्ञान । (92) विकाराकान्त-विस पर विकारों ने आक्रमण किया हो। विकृतियां-विकार समूह, खोटे भावों का समुदाय । अविराम-तुरंत । (93) विभ्रांति-मिथ्यात्व, मोह।
निधान-भंगार, समाना।