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करता-काधिकार
( १३६/४ ) विधि के उदय जन्य सुख दुःख में यदि रति परति क्रिया अनिवार्यमान चलें बो बुद्धि पुरस्पर तप ध्यानादि न हों सत्कार्य । यतः निरंतर ही रहता है जीवों में कर्मोदय वाम । प्रतः बंध अनिवार्य सिद्ध हो, मुक्ति प्रसंभव हो निष्काम ।
( १३७ ) पुद्गल कर्म संग जीवों के होते रागादिक परिणाम । यथा रक्त होकर परिणमती सुधा-हरिद्रा मिल अविराम । यों माने तो जीव कर्मद्वय हों रागादि भाव सम्पन्न । तब पुद्गल को भी चेतन वत् बंध भाव होगा निष्पन्न ।
( १३८ ) आत्मा के रागादिभाव पुद्गल कर्मों से भिन्न है दृष्ट विरुद्ध मान्यता है यह, यतःराग-चेतन परिणामपुद्गल कर्म परिणमन से है भिन्न भाव सर्वथा सकाम । कर्मोदय केवल निमित्त है, जो कि जीव से रहता भिन्न । कामी जन परनारि निरख ज्यों होता स्वयं विकारापन्न । (136/4) पुरस्सर-पूर्वक, सहित । वाम-विकार रूप। (137) सुधा-चूना, कलई।
हरिता-हल्दी । मिल-मिलकर ।