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ममयसार-वैभव
( ११४ ) इस प्रकार सब जीव नियम से होंगे सिद्ध स्वयं निर्जीव । जीव द्रव्य का नाश दूसरे-शब्दों में हो जाय अतीव । यही दोष प्रत्यय शरीर वा जीव एकता में गंभीर । जब कि जीव नहि कर्म बन सके और न प्रत्यय याकि शरीर ।
( ११५/१ ) जीव तत्व से क्रोध भिन्न है, यदि यह मान्य तुम्हें सिद्धांत । यतः क्रोध जड़; किन्तु जीव उपयोग मयी चैतन्य नितांत । त्यों नो कर्म, कर्म-प्रत्यय भी जीव भिन्न होते है सिद्ध । मिथ्यात्वादि विकारों से है भिन्न तत्व चैतन्य प्रसिद्ध ।
( ११५/२ )
व्यवहार नय मे जीव कर्मों का कर्ता है यो विशुद्ध नय से कर्मों का कर्ता जीव न होता सिद्ध । किन्तु वही व्यवहार दृष्टि से कर्ता भोक्ता न ही प्रसिद्ध । यतः जीव अज्ञान दशा में करता है परिणाम मलीन । अतः जीव ही उनका कर्ता बन रहता व्यवहाराधीन । (114) अतीव-अत्यंत । प्रत्यय-इन्द्रियादि करण ।