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कर्ता कर्माधिकार
( ११५/३ ) व्यवहार निरपेक्ष निश्चयकात सांख्य सदाशिवों का मत है देवदत्त अवलोकन करता वामनेत्र से, इसका अर्थ--1 यही कि दक्षिण से न विलोके, भिन्न अर्थ सब होंगे व्यर्थ । यों सापेक्ष नयों को जो नहि मान्य करें मतिभ्रान्त नितांत । सांख्य, सदाशिव मत अनुयायो बनकर होते वे दिग्भ्रान्त ।
( ११५।४ ) यदि यह जीव सर्वथा ही नहि होता कभी विकाराक्रांत । क्रोध मानमायादि कषायों से प्रलिप्त रहता निर्धात । तब फिर कर्म बंध नहि होगा इसे सिद्ध भगवान समान । संसार जन रहे न कोई, सभी मुक्त हो रहे, निदान ।
( ११५/५ )
निश्चयकात प्रमाण बाधित है यह सब है प्रमाण से बाधित, जब किप्रत्यक्ष दुःखी संसार ।
और जीव से भिन्न न होते क्रोधादिक चैतन्य विकार । अतः नयाश्रित कथन सर्वथा है न कदाग्रह योग्य निदान । जिस नय से जो कथन किया, वह आपेक्षिक ही सत्य सुजान । (121/3) वामनेत्र-बायी आँख । सापेक-एक दूसरे की अपेक्षा रखते हुए ।
(115/4) विकाराकांत-विकार सहित। आपेक्षिक-किसी अपेक्षा (सर्वथा नहीं)