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समयसार वैभव
व्यवहार द्वारा निश्चय में प्रवेश द्रव्य-भाव द्वारा विभक्त है दो भागों में सब श्रुतज्ञान । प्रथम भावश्रुत स्वानुभूति से निज शुद्धात्म तत्व पहिचानज्ञानी बना, उसे कहते है ऋषिगण श्रुतकेवलिभगवान् । इस प्रकार गुण-गुणी भेद कर तत्व किया विज्ञप्त महान ।
अथवा जो परिपूर्ण द्रव्य श्रुत जान बना तत्वज्ञ महान । देव उसे प्रतिपादन करते श्रुतकेवलि श्रुतज्ञान निधान । यों अभेद में भेद दिखाकर किया 'ज्ञान-ज्ञानी' व्यपदेश । इस व्यवहार कथन से होता भेद द्वार परमार्थ प्रवेश ।
( ११/१ )
शुद्ध एवं व्यवहार नय की स्थिति वर्णित है भूतार्थ शुद्धनय, अभूतार्थ है नय व्यवहार। शुद्ध वस्तु है अर्थ 'भूत' का, पर्यायादि 'प्रभूत' विचार । मुग्ध दशा में रहता प्रायः पर्यायाश्रित जन मतिनांत । शुद्ध दृष्टि पाकर विरला ही बनता सम्यक्दृष्टि नितांत ।
(9) विभक्त-विभाजित। स्वानुभूति-स्वानुभव । विज्ञप्त-प्रकट-प्रसिद्ध । (10) प्रतिपावन-कथन (11/1) मुग्ध-मोहमयी । पर्यायाश्रित-पर्याय दृष्टि वाला । शुद्ध दृष्टि
शुद्धात्म दृष्टि ।