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कर्ता-कर्माधिकार
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( ७८ ) " , ज्ञानी कर्म फलों का भी कर्ता नहीं । सुख दुखादि जो पुद्गल कर्मों के विपाक है विविध प्रकार । ज्ञानीजीव न उनका कर्ता सिद्ध कभी होता अविकार । यतः न वह तन्मय होता है, करता उन्हें ग्रहण नहि लेश । और न हो उत्पन्न वही बन, उदासीन रहकर सविशेष ।
( ७६ ) पुद्गलकर्म भी जीव के भावो का कर्ता नहीं है । ज्यों न जीव पुद्गल मय कर्मों और फलों का कर्ता है । त्यों पुद्गल भी नहि निश्चय से जीव-भाव परिणमता है । उन्हें ग्रहण करता न कभी वह साभिप्राय चैतन्य विहीन । एवं जीव रूप धारण कर भी न उपज सकता जड़ दीन ।
(८०) जीव और कर्म मे निमित्त और नमत्तिक सन्बन्ध है । जीवों के परिणाम निरन्तर होते जो कि शुभाशुभरूप । पा निमित्त इनका पुद्गल-अणु कर्मरूप परिणमें विरूप । वैसे ही उदयागत पुद्गल कर्मों का निमित्त पा जीव -
रागद्वेष भावों को धारण कर बन रहता विकृत अतीव । (79) साभिप्राय-इरादतन, विचारपूर्वक । बिहीन-रहित, शून्य । जड़ अजीब। बीन बेचारा, गरीब। (80) विरूप-विभाव रूप, विकारमयी। अतीव-अत्यंत ।