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जीवाजीवाधिकार
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( ४६/५ ) जिनदर्शन, जिनधर्म श्रवण, जिनप्रतिमा-जिनमंदिर निर्माण । तपश्चरण, व्रत, नियम, तीर्थ यात्रा करना जिन वचन प्रमाण । सामायिक, सँस्तवन, वंदना, देवार्चन, गुरु सेवा-मान । श्रावक-मुनि के मूलोत्तर गुण-हो जायें सब अन्तर्धान ।
( ४६/६ ) तज-अन्याय, अमक्ष्य, दुर्व्यसन एवं अनाचार व्यभिचार । सत्य अहिंसा मय प्रवृत्तिकर रखना उर में उच्च विचार । देव, शास्त्र, गुरु पर श्रद्धा, सत्पात्र दान, संयम अम्लान । पालन कोन करे, यदि माने हेय सर्व व्यवहार विधान ?
( ४६/७ ) उभयनयो की विरुद्ध दृष्टियो का समन्वय जीव मात्र परमार्थ दृष्टि में शुद्ध, बुद्ध, चैतन्य निधान । पर पर्याय दृष्टि अन्तर भी होता है उपलब्ध महान । उभय नयाश्रित कथन सत्य है, और अबाधित भी सापेक्ष । किन्तु वही मिथ्या बन जाये जब नितांत होता निरपेक्ष । (46/5) संस्तवन-जिनस्तुति । देवार्चन-वेवपूजा। मान-आवर । अन्तर्वान-गायन ।