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जीवाजीवाधिकार
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( ४६/११ ) भक्षण कर अभक्ष्य का रुचि से लेते स्वाद स्वयं अविराम । विषय वासना पूर्ति हेतु जो तन्मय रहते सतत सकाम । नहि वैराग्य ज्ञान की जिनके जीवन में है झलक, प्रवीण ! फिर भी सम्यकदृष्टि स्वयं को माने भांत पथिक वे दोन ।
( ४६/१२ ) यह है सब व्यवहार धर्म निर्पेक्ष मान्यता का परिणाम । जिससे आत्म-म्रांतिवश जीवन मार्ग भ्रष्ट होता अविराम । जिनका दुष्कर्मों में रहता योग और उपयोग मलीन । उनके मार्ग भ्रष्ट होने में रंच नहीं संदेह, प्रवीण !
( ४६/१३ ) किसको कौन-सा नय आश्रयणीय और प्रयोजनवान् है ? परमभाव वझे द्वारा है-निश्चय प्राश्रयणीय महान । जो समाधि में लीन बन करें, ससत स्वानुभव का रसपान । अपरमभाव संस्थित जन को है व्यवहार प्रमुख उपदेश । पात्र भेद से प्रतिपादित है उभय नयाश्रित धर्म अशेष । (46/13) आभयवीय-आश्रय लेने योग्य । परमभावदर्शी-खोपयोगी । अपरमभाव
संस्थित-प्राथमिक-साधक दशा में स्थित ।