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समयसार-वैभव
( ४६/८ ) यदि निश्चय एकांत ग्रहणकर प्राणिमात्र को राग-विहीन - शुद्ध सर्वथा मान चले तो मुक्ति मार्ग हो जाय विलीन । यतः शुद्ध नय मुक्ति न माने, मार्ग न सम्यक्दर्शनज्ञान । मान सिद्ध भगवंत स्वयं को लोक बनें पथ भ्रांत महान ।
( ४६/६ ) शुद्ध दृष्टि में-बध करना, बध तजना-दोनों क्रिया समान । तवाधार व्यवहार करें तो नर-नारक बन जाय अजान । निश्चय दृष्टि जीव स थावर देहों-से हैं भिन्न नितांत । भस्म समान उन्हें मर्दन में दोष न होगा फिर, मतिभ्रांत !
( ४६/१० )
जीव सर्वथा अजर अमर है, जड़ शरीर से सदा अछत । पुण्य पाप सब एक बराबर, जिन्हें चढ़ा ऐकांतिकभूत । तद्वश हो व्यवहार धर्म का जो खंडन करते संभ्रांत ।
उन्हें निश्चयाभास सतत सचमुच करता दिखता दिग्मांत । (46/9) बष-हत्या, हिंसा । तबाधार-दोनों हिंसा और अहिंसा को समान मानकर । मर्दन-कुचलना, पीसना । (46/10) निश्चयाभास-नकली (मिभ्या) निश्चय ।