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इन ६८३ वर्षों तक गुरुपरम्परा अविच्छिन्न रूप से चलती रही है अतः इतना वर्णन तो अनेक ग्रंथों में पाया जाता है। इसके बाद का नहीं पाया जाता, तयापि कुछ प्रमाणों से इस बात पर प्रकाश पड़ता है कि अन्तिम श्री लोहाचार्य संभवतः अपने पट्ट पर किसी प्राचार्य को स्थापित नहीं कर सके होंगे प्रतः लोहाचार्य के गुरु श्री यशोबाहु, जिनको अन्यत्र द्वितीय (भद्रबाहु) भी लिखा है, के अन्यतम शिष्य प्रहबलि (लोहाचार्य के गुरुभ्राता) पर प्रागे संघ व्यवस्था का भार स्वतः पाया होगा । प्रहंबलि के शिष्य माघनंदि इनके बाद पट्टाक्ली में जिनचंद्र और उनके पट्ट पर श्री कुंदकुंदाचार्य हुए, ऐसा उल्लेख है।
अभिप्राय यह है कि वीर प्रभ की परम्पस से श्री कुन्दकुन्दाचार्य को श्रुतोपदेश अविच्छिन्न धारा से प्राप्त था अतः उनके उपदेश को अत्यन्त प्रामाणिकता प्राप्त है। भगवान् कुदकुंवाचार्य के महाविदेह क्षेत्र में श्री १००८ सीमंधर तीयंकर प्रभु के समय शरण में जाकर उपदेश सुनने का भी वर्णन वर्शनसार ग्रंथ में पाया है इससे भी इनके ज्ञान को विशवता तथा प्रामाणिकता नितान्त स्पष्ट है।
नियमसार के प्रारंभ में भी फन्दकन्दाचार्य ने जो मंगलाचरण किया है उसमें लिखा है:
मिऊण जिणं वीरं प्रणत परणाणसण सहावम् ।
वोच्छामि णियमसारं केवलिसुदकेवली भणियम् ।। अर्थात् श्री वीरनाथप्रभु जो अनन्त मान दर्शन स्वमावी हैं उनकी बन्दना करके केवलो तया श्रुतकेवली द्वारा कथित नियमसार को कह रहा हूँ।
यहाँ "केवली श्रुत केवली" कथित शब्द से भी ऐसी ध्वनि निकलती है कि संभवतः उन्होंने केवली श्रुत केवली के मुखारविव से धर्मोपदेश पाया हो।
यह समयसार या समयमाभूत ग्रंथ इनही श्री १०८ प्राचार्य कुन्दकुन्द को कृति है। मूल ग्रंथ प्राकृत भाषा में गाथा निबद्ध है। ग्रंथ की संस्कृत टोका श्री १०८ प्रमृतचन्द्राचार्य ने को है, जो भाषा और भाव को वृष्टि से असाधारण है। टीका का नाम "प्रात्मख्याति" भी बड़ा सुन्दर एवं ग्रंथानुरूप है। इसी पर श्री पं. जयचन्द्रजी सा. ने "प्रात्मख्याति समयसार" नामक हिंदी अनुवाद बहुत बारोको के साथ किया है। दूसरी संस्कृत टीका श्री १०८ जयसेनाचार्य कृत तात्पर्यवृत्ति मामा है, जो भाव एवं भाषा को दृष्टि से सरल और विस्तृत है।