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ऐसी सूचना देता है। अतः यदि उच्च बशा प्राप्त पवित्र पुरुष को प्रतिक्रमण करना पड़ता है, तो उसके लिए वह लज्जा काही विषय है। कारण कि निरपराधी क्यों प्रतिक्रमण करेगा?
सर्व विशुद्ध ज्ञानाधिकार इस अधिकार में यह बताया गया है कि आत्मा का कर्म के साथ निमित्त नैमित्तिक भाव है, कत्तुं कर्मभाव नहीं है । निमित्त वैमित्तिक भाव के कारण हो बंध कहा जाता है।
और व्यवहार से इसे कतुं कर्म संबंध भी कहते हैं। पर परमार्थ में कतकर्म भाव नहीं है। कर्तृत्व के अभाव में वह भोक्ता भी नहीं है।
मानी कर्म का न, कर्ता है, न भोक्ता है। वह केवल उनका शायक है। इसी प्रकार 'कर्म जीव को अज्ञानी रागी वेषी करता है-यह मान्यता भी सिद्धांत विरुद्ध है। जीव की ही अज्ञान मय परणति है। अतः अपनी परणति का यथार्यकर्ता वही है, भले ही उसमें कर्म का निमित है । इसी प्रकार पुद्गल वर्गणाएं कर्म प्रकृति रूप भले ही जीव के रागादि परिणाम के निमित्त से होती है पर उसका यथार्थ कर्ता पुद्गल द्रव्य ही है, जीव नहीं, । दोनों का एक दूसरे को परणति में मात्र निमित्त नैमित्तिकता है। पथार्थ कर्ता। अपने कार्य से तन्मय होता है। जीव कर्म को पर्याय से और कर्म जीव की पर्याय से तन्मय नहीं होता । व्यवहार में कर्ताकर्म भिन्न होते हैं, निश्चय में कर्ताकर्म भाव विभिन्न पदार्थों में नहीं होता।
जीव में रागादि भाव होते है, उसमें परम का अपराध नहीं है, मह जीव स्वयं अपने 'अमान से रागादि रूप परिणमन करता है। मतः स्वयं अपराधी है। जिनकी दृष्टि केवल पर कतत्व पर है, वे मोहवाहिनी को नहीं सर सकते।
रागोत्पत्ति में स्पवान रसवान मारि पानी को दोष नहीं दिया जा सकता; लॉक थे जीव से यह नहीं कहते कि तुम हमें भोगो। जीव अपने मकान से उन्हें स्वयं स्वीकार करता है, अतः पार्थ में यह स्वयं अपराधी है।
इसी प्रकरण में प्रतिक्रमण प्रत्यास्यान आलोचना का स्वरूप प्रतिपादन किया गया है। कृत कारित अनुमोदना, मन-वचन, काय, आदि के निमित्त से तीनों के 49-49 भंगकर उन दोषों से छूटने की प्रक्रिया जतलाई है । जिससे जीव अपराधों से मुक्त होकर विशुद्ध बने।