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(८) नहीं हुए ? श्रीअभयदेवसूरिके ज्येष्ठ गुरुबंधु श्रीजिनचन्द्रसूरिने अपनी बनाई संवेगरंगशालाका संशोधन श्रीअभयदेवसरि शिष्य जिनवल्सभ गणिसे कराया था, इसका स्पष्ट उल्लेख उन्होंने किया है चित्रकूट प्रशस्ति में जिनवल्लभ गणि ने (१) प्रसन्नचंद्रसूरि (२) वर्धमानसूरि (३) हरिभद्रसूरि और (४) देवभद्रसूरिकी स्तुतिकी है।
इससे स्पष्ट है अपने गुरुबंधु वर्धमानसू रिके प्रति भी उन्हें काफी आदर था और श्रीजिनचंद्रसूरिजीने उन्हे अभयदेवसूरिजी का शिष्य कहा है।
इन सब बातोंसे यह भी स्पष्ट है जिनवल्लभसूरि इसी परंपरा में थे, उनके सब ग्रन्थों में उन्होंने श्रीअभयदेवसूरीको अपना गुरु माना है।
श्रीअभयदेवमूरिके पाट पर तो २ आचार्य थे इसलिए छिद्रान्वे. षीयोंको कुछ कहनेका अवसर मिल गया किन्तु जिन वल्लभसूरिके पाट पर तो एकमात्र युगप्रधान जिनदत्तारिजी थे, ऐसी अवस्थामें जिनवल्लभ(सूरि)गणीको इस परंपरामें न मानना सिवा इतिहास के अज्ञानके क्या हो सकता है । ५
श्रीजगचन्द्रसरिको उदयपुर दरबारने 'तपा' बिरुद दीया इसका उल्लेख केवल तपागच्छीय पट्ट'वलियों में है, फिर भी हम तो इसपे आक्षेप नहीं करते, फिर श्रीजिनेश्वरसूरिको गुर्जर नरेश श्रीदुर्लराजने 'खरतर' बिरुद दीया इससे चिढ़ ज्यों है ? वीर वंशावली आदि अनेक स्थलो पर तपागच्छीय लोगोंने भी इस चीजको माना है पर द्वेषबुद्धि मनुष्य को अंबा बना देती है । इसीसे उन्हें. सत्यके दर्शन नहीं होते।
सूर्यसप्तमी सं० २०१२ ]
[ उमरावचन्द जरगड
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तपा खरतर भेद पृ. २ ।
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