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प्रसन्न चन्द्रसूरिने यह भार अपने सुयोग्य शिष्य देवभद्राचार्य पर छोड़ा और स्वर्ग सिधारे । उस समय देवभद्राचार्य इस समुदाय में बहुत प्रभावशाली प्राचार्य थे, उन्होंने वीर चरित्र पार्श्वनाथ चरित्र आदि कई ग्रन्थ बनाये थे ।
इधर जिनवल्लभ गणिने पिंडविशुद्धि संघपट्टक आदि अनेक ग्रन्थ बनाये । वागड़ देशमें दस हजार नूतन जैन बनाये, उनकी महानता सब पर प्रगट हो गई, समुदाय उनका पूर्ण भक्त हो गया सब देवभद्राचार्य. ११६७ में गच्छका नेतृत्व उनके हाथ सोंप कर दादा गुरु श्रीअभयदेवसरिके आदेश का पालन किया। जिनवल्लभसूरिके स्वर्गारोहण पश्चात इन्हीं देवभद्राचार्यने जिनदत्तसूरिको गच्छनायक बनाया।
११६७ से १२११ तक युगप्रधान जिनदत्तसूरिजीका शासन काल था । 'खरतर' बिरुदसे चैत्यवासियों की पराजयका संकेत मिलता है। दूसरेका दिल दुखाना उचित न जानकर इन महापुरुषों ने स्क्यं इसका प्रयोग नहीं किया किन्तु जब भक्तिवश अन्य लोग बिरुदका प्रयोग करने लगे तो फिर इस बिरुद का प्रयोग होने लगा।
श्रीअभयदेवसूरिजीको खरतरगच्छसे पृथक रखनेका विचार सबसे पहले, तपागच्छी धर्मसागर उपाध्यायके दिमागमें आया। श्रीअभय. देवसरिने नवअंग सूत्रोंपर टीकाकी थी, इसलिये इनका खरतरगच्छमें होना धर्मसागरको बहुत अखरता था । खोजनेपर उसको इसका कूट उपाय भी मिल गया, क्योंकि खरतरगच्छ पट्टावली-गणधर सार्द्धशतकवृत्तिमें जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है अभयदेवसूरिने वर्धमानसूरिको अपना उत्तराधिकारी नियत किया था । इस ग्रंथकी इस बातको तो ये लोग मान लेते हैं किन्तु प्रसन्नचंद्रसूरिको जो आदेश दिया गया था उसे नहीं मानते + इसे ही द्वेष बुद्धि कहते हैं । क्या एक आचार्य के २ पट्टधर नहीं हो सकते ? क्या जगचन्द्रसूरिजीके दो पट्टधर
+ तथा खरतर भेद पृ० १७३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com