Book Title: Prashnottar Chatvarinshat Shatak
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Paydhuni Mahavir Jain Mandir Trust Fund

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Page 10
________________ (५) गच्छी इरियावही प्रतिक्रमके सामायिक लेते हैं. यह बात ठीक वैसी ही है जैसे गुजराती लोग महिनेके आदिमें 'सुदि' मानते हैं, अन्य लोग महिनेके आदिमें ‘वदि' मानते हैं । (२) अन्य भेद तिथी पक्खी व संवत्सरीका है जिसके लिए श्रीमद् राजचंद्रने कहा है कि 'धर्म आराधनाके लिए तिथियां नियत की गई हैं न कि तिथियों के लिए धर्मकी आराधना' उदाहरणके लिए यह दो ही नमूने बस होंगे अधिक के लिये यह स्थान अनुपयुक्त है । कुछ मान्यतायें बड़ी विचित्र हैं, उनका उदाहरण आगे दिया जाता है। (३) जिस घरमें जनम या मरण हुआ हो उस घरका व्यक्ति भी स्नान करके प्रभु पूजा कर सकता है, उसे कोई सूतक आदि नहीं लगता, किन्तु आश्चर्य है कि साधु उस घर गोचरीके लिए ११ दिन नहीं जा सकता, ऐसी मान्यता इस पुस्तककी है । सागरानन्द सूरि आदि तपागच्छीय आचार्य इस मान्यताके विरोधी है, इन सबको आगम प्रज्ञजीने खरतरोंकी देखा देखी करने वाला कहा है। (४) पुरुषोंकी सभामें साध्वीयोंके व्याख्यानका निषेध 'तपा खरतर मेद में किया गया है, किन्तु इसी तपागच्छ में श्रीविजयवल्लमसूरिजी इस चीनका निषेध नहीं करते, जैन तीर्थकर ही ऐसे हुए हैं जिन्होंने सर्व प्रथम स्त्रियोंको पुरुषोंके समान सब अधिकार माने हैं। नमताके आग्रहमें दिगम्बरोंने उनका मोक्ष जानेका हक छीना और उनके मोक्षके हिमायती इन तपागच्छियों ने व्याख्यान देनेके सामान्य अधिकारसे भी उन्हे वंचित कर दिया। (५) पृ० १७. तपा खरतर मेद की टिप्पणी में आगमप्रज्ञजी लिखते हैं कि 'जो श्रीदेवचंद्रजीकी स्नात्र भगाते हैं वे अबसे वीर विजय प्रादि तपागच्छियों की भणा' लेखक अनुवादक और प्रस्तावक इन तीनोंकी प्रत्येक बातसे खरतरगच्छके प्रति अत्यंत द्वेषबुद्धि प्रगट होती है गुणग्राहकताका तनिक भी भाव नहीं है, तब ही श्रीदेवचन्द्रजीकी स्नात्रका निषेध करते हैं। देवचन्द्रजीकी स्नात्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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