Book Title: Pramanmimansa
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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प्रस्तावना
३. प्रमाण शक्ति की मर्यादा
विश्व क्या वस्तु है, वह कैसा है, उसमें कौनसे कौनसे और कैसे-कैसे तत्त्व हैं, इत्यादि प्रभोंका उत्तर तत्त्वचिन्तकों ने एक ही प्रकार का नहीं दिया । इसका सबब यही है कि इस उत्तरका आधार प्रमाण की शक्तिपर निर्भर है और तत्वचिन्तकों में प्रमाण की शक्तिके बारे में नाना मत है। भारतीय तत्वचिन्तकों का प्रमाणशक्तिके तारतम्य संबंधी मतभेद संक्षेपमें पांच पक्षों में विभक्त हो जाता है- १ इन्द्रियाधिपत्य, २ अनिन्द्रियाधिपत्य, ३ उभयाधिपत्य, ४ आगमाधिपत्य और ५ प्रमाणोपलव ऐसे पांच पक्ष हैं ।
१. जिस पक्ष का मन्तव्य यह है कि प्रमाण की सारी शक्ति इन्द्रियों के ऊपर ही अब लम्बित है, मन खुद इन्द्रियों का अनुगमन कर सकता है पर वह इन्द्रियों की मदद के सिवाय कहीं भी अर्थात् जहाँ इन्द्रियों की पहुँच न हो वहाँ कभी प्रवृत हो कर सच्चा ज्ञान पैदा कर ही नहीं सकता । सचे ज्ञान का अगर संभव है वो इन्द्रियोंके द्वारा ही, वह इन्द्रि
face पक्ष | इस पक्ष में चार्वाक दर्शन ही समाविष्ट है। यह नहीं कि चार्वाक अनुमान या शब्द व्यवहाररूप आगम आदि प्रमाणों को जो प्रतिदिन सर्वसिद्ध व्यवहार की वस्तु है, उसे न मानता हो, फिर भी चार्वाक अपनेको प्रत्यक्षमात्रवादी - इन्द्रियप्रत्यक्षमात्रवादी कहता है; इसका अर्थ इतना ही है कि अनुमान, शब्द आदि कोई भी लौकिक प्रमाण क्यों न हो पर उका माषाण इन्मियक्ष के वाद के सिवाय कभी संभव नहीं । अर्थात् इन्द्रियप्रत्यक्ष से बाधित नहीं ऐसा कोई भी ज्ञानयापार अगर प्रमाण कहा जाय तो इसमें चार्वाक को आपति नहीं ।
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२. अनिन्द्रिय के अन्तःकरण- मन, चित और आत्मा ऐसे तीन अर्थ फलित होते हैं जिनमें से चित्तरूप अनिन्द्रियका आधिपत्य माननेवाला अनिन्द्रियाधिपत्य पक्ष है । इस पक्ष भें विज्ञानवाद, शुन्यवाद, और शाहर वेदान्त का समावेश है । इस पक्ष के अनुसार यथार्थ ज्ञान का संभव विशुद्धचित्त के द्वारा ही माना जाता है । यह पक्ष इन्द्रियों की सत्यज्ञानजनन शक्ति का सर्वथा इन्कार करता है और कहता है कि इन्द्रियाँ वास्तविक ज्ञान कराने में पंगु दी नहीं afer धोखेबाज भी अवश्य हैं। इसके मन्तव्य का निष्कर्ष इतना ही है कि चिच, खासकर ध्यानशुद्ध साविक चिरा से बाधित या उसका संवाद प्राप्त न कर सकने वाला कोई ज्ञान प्रमाण हो ही नहीं सकता, चाहे वह भले ही लोकव्यवहार में प्रमाणरूपसे माना जाता हो ।
३. उभयाधिपत्य पक्ष वह है जो चार्वाक की तरह इन्द्रियों को ही सब कुछ मानकर इन्द्रिय निरपेक्ष मन का असामध्ये स्वीकार नहीं करता और न इन्द्रियों को पंगु या धोखेबाज मानकर केवल अनिन्द्रिय या चित्रा का ही सामर्थ्य स्वीकार करता है। यह पक्ष मानता है कि चाहे मनकी मदद से ही सही पर इन्द्रियाँ गुणसंपन्न हो सकती हैं और वास्तविक ज्ञान पैदा कर सकती हैं। इसी तरह यह पक्ष मानता है कि इन्द्रियों की मदद जहाँ नहीं है वहाँ भी अनिन्द्रिय यथार्थ ज्ञान करा सकता है। इसीसे इसे उभयाचिपत्य पक्ष कहा है। इसमें सांख्ययोग, न्याय-वैशेषिक, मीमांसक, आदि दर्शनों का समावेश है। सांख्ययोग इन्द्रियों