Book Title: Pramanmimansa
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 149
________________ पृ. २. ५०.] भाषाटिप्पदानि । मा० हेमचन्द्र ने उपर्युक्त सभी परम्पराओं का उपयोग करके अपनी भ्याल्या में 'प्रथ' शब्द को अधिकारार्थक, भानन्तर्यार्थक और मंगलप्रयोजनवाला बतलाया है। उनकी उपमा भी शब्दशः वही है जो वाचस्पति के उक ग्रन्थों में है। पृ० २. ५० ३. श्रायुष्म'-तुलना- "मङ्गलादीनि हि शास्त्राणि प्रचन्चे वीरपुरुषाणि व भवन्ति, आयुष्मत्पुरुषाणि याध्येतारश्च सिद्धार्था यथा स्युरिति-पास. महा० १.१.१. पृ०२.५० ४. 'परमेष्ठि-जैन परम्परा में महत्, सिद्ध, प्राचार्य, सपाध्याय और साधु ऐसे श्रात्मा के पांच विभाग लोकोत्सर विकास के अनुसार किये गये हैं, जो पंचपरमेष्ठी कहलाते हैं। इनका नमस्कार परम मंगल समझा जाता है "एष पश्चनमस्कारः सर्वपापक्षयरः । मङ्गलानां र सगा प्रथा भपति मजलाम् ।।" 10 पृ० २. ५० ५. 'मकर्षण-वात्स्यायन ने अपने न्यायभाध्य में ( १. १, ३.) 'प्रमाण शब्द को करणार्धक मानकर उसकी निरुक्ति के द्वारा 'प्रमाण' का लक्षण सूचित किया है। वाचस्पति मिश्र ने भी सांख्यकारिका की ( तत्त्वको० का• ४ ) अपनी व्याख्या में 'प्रमाण' का लक्षण करने में उसी निर्बयनपद्धति का अवलम्बन किया है। प्रा. हेमचन्द्र भी 'प्रमाण शब्द की उसी तरह निरुक्ति करते हैं। ऐसी ही निरुति शब्दशः 'परीक्षामुख की व्याख्या 15 प्रमयरत्नमाला ( १. १.) में देखी जाती है। पृ. २. पं. ६. 'त्रयी हि'-उपलभ्य अन्यों में सब से पहिले वास्यायनभाष्य में ही शास्त्रप्रवृत्ति के विषय की चर्चा है और तीनों विधाओं का स्वरूप भी बतलाया है। श्रीधर ने अपनी कंदही'२ में उस प्राचीन विभ्य के कयन का प्रतिवाद करके शास्त्रप्रवृत्ति को श लसणरूप से विविध स्थापित किया है और परीक्षा को अनियत कहकर उसे विध्य में से 20 कम किया है। श्रोधर ने नियतरूप से द्विविध शालप्रवृत्ति का और वात्स्यायन ने त्रिविध शासप्रसि का कथन किया इसका समय स्पष्ट है। श्रीधर कखादसूत्रीय प्रशस्तपादभाष्य १ "त्रिविधा चाप शास्त्रस्य प्रवृत्तिः उद्देशो लक्षणं परीक्षा चरित। तत्र मामधेयेन पदार्थमात्र. स्याभिधानं उद्देशः। तत्रोद्दिष्टस्य तत्त्वव्यवच्छेदको धो लक्षणम् । लक्षितस्य यथालक्षणमुपपद्यते न वेति प्रमाणैरत्रधारमा परीक्षा. न्यायभा० १.१.२. २ "अनुद्दिष्टेषु पदार्थेषु न तेषां लक्षणानि प्रवर्तन्ते निविषयत्वात् । अलक्षितेषु च सवरतीत्य. भावः कारणाभावात् । अतः पदार्थव्युत्पादनाय प्रवृत्तस्य शास्त्रस्योभयथा प्रवृत्ति:-उद्दशी लक्षण' च, परीक्षावास्तु न नियमः। यत्राभिहिते लक्षणे प्रवादान्तरध्याक्षेपात् तत्वनिश्चधा न भवति तत्र परपक्षन्युदासार्थ परीक्षाविधिरधिक्रियते। यत्र तु लक्षणाभिधानसामर्थ्यादेव तत्त्वनिश्चयः स्यात् तत्रायं व्ययों नार्थते । योऽपि हि विविधा शास्त्रस्य प्रवृत्तिमिति तस्यापि प्रयोजनादीनां नास्ति परीक्षा। तत् कस्य हेतालक्षणमात्रादेव में प्रलीयन्ते इति । एवं चेदर्थप्रतीत्यनुरोधात् शास्त्रस्य प्रवृत्तिनं विश्व । नामधेयेन पदार्थानामभिधानमुद्देशः । उद्दिष्टस्य स्वपरजातीयव्यावर्त का धर्मो लक्षणम् | लक्षितस्य यथालक्ष विचार: परीक्षा -- कन्दली पृ०२६.

Loading...

Page Navigation
1 ... 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182