Book Title: Pramanmimansa
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad

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Page 166
________________ प्रमाणमीमांसायाः [ ७. ०७ farm रके चर्चा है वह तार्किकविभागाश्रित। पहली वर्षा का अमिश्रित उदाहरण है आवश्यक नियुक्ति और दूसरी चर्चा का श्रमिश्रित उदाहरण है न्यायाववार । जैन परंपरा में प्राचीन और मौलिक चर्चा तो आगमिक विभागाश्रित ही है। सार्किकfaभागात चर्चा जैन परंपरा में कब और किसने सर्वप्रथम दाखिल की, इसे निश्चितरूप से कहना अभी संभव नहीं । स्थानान और भगवती ये दोनों गंगाधरकृत समझे जानेवाले ग्यारह में से हैं और प्राचीन भी अवश्य हैं। उनमें यद्यपि तार्किक विभाग का निर्देश स्पष्ट है तथापि यह मानने में कोई विरोध नहीं दीखता कि स्थानांङ्ग भगवती में वह तार्किक विभाग निर्युतिकार साहु के बाद ही कभी दाखिल हुआ है क्योंकि आवश्यक नियुकि जो भद्रबाहुकृत मानी जाती है और जिसका आरम्भ ही ज्ञानचर्चा से होता है उसमें प्रागमिक विभाग 10 है पर तार्किक विभाग का सूचन तक नहीं है। जान पड़ता है नियुक्ति के समय तक जैन आचार्य यद्यपि ज्ञानचर्चा करते तो थे श्रागमिक विभाग के द्वारा ही, फिर भी वे दर्शनान्तरप्रतिष्ठित प्रमाणचर्चा से बिल्कुल अनभिज्ञ न थे। इतना हो नहीं बल्कि प्रसङ देखकर वे दर्शनान्तरीय प्रभावशैली का उपयोग एवं उसमें संशोधन भी कर लेते थे । अतएव उसी भद्रबाहु की कृति मानी जानेवाली दशवैकालिक नियुक्ति में हम परार्थानुमान की चर्चा पाते हैं 15 जी अवयवांश में ( गा० ५० ) दर्शनान्तर की परार्थानुमानशैली से अनोखी है। जान पड़ता है सबसे पहिले प्रार्थरक्षित ने, जो जन्म से ब्राह्मण थे और वैदिक शास्त्रों का अभ्यास करने के बाद ही जैन साधु हुए थे, अपने ग्रन्थ अनुयोगद्वार ( पृ० २११ ) में प्रत्यक्ष, अनुमानादि चार प्रमाणों का विभाग जो गौतमदर्शन ( न्यायसू० १.१.३ ) में प्रसिद्ध है, उसको दाखिल किया । उमास्वाति ने अपने स्वार्थ सूत्र ( २.१०-१२ ) में प्रत्यक्ष-परोक्ष 20 रूप से जिस प्रमाणद्वयविभाग का निर्देश किया है वह खुद उमास्वातिकक है या किसी अन्य आचार्य के द्वारा निर्मित हुआ है इस विषय में कुछ भी निश्चित कहा नहीं जा सकता । जान पड़ता है आगम को संकलना के समय प्रमाणचतुष्टय और प्रमाषद्वयवाले दोनों विभाग स्थानाङ्ग तथा भगवती में दाखिल हो गये। आगम में दोनों विभागों के संनिविष्ट हो जाने पर भी जैन आचार्यों की मुख्य विचारदिशा प्रसाद्वयविभाग की ओर 25 ही रही है। इसका कारण स्पष्ट है और वह यह कि प्रमाणचतुष्टयविभाग असल में न्याय दर्शन का ही है, ear उमास्वाति ने उसे 'नयवादान्तरे' ( तत्वार्थमा १.६ ) कहा है जब कि प्रमाणविभाग जैनाचार्यों का स्वोपज्ञ है। इसी से सभी जैन तर्कप्रन्थों में उसी विभाग को लेकर प्रमाण चर्चा व ज्ञान चर्चा की गई है। प्रा० देमचन्द्र ने भी इसी सबब से उसी प्रभाविभाग को अपनाया है । २० 00 हेऊ १ "दुविहे नाणे पत्ते तंजदा पथक्खे चेत्र परोकखे चैव ।" स्था० २. पृ० ४६ A. "श्रा हे पं० ० पचक्खे, अणुमाणे, ग्रोवम्मे, आगमे ।" स्था० ४. पृ० २३४ A. “से कि व पमाणे १ । पमाणे च उत्रिहे परते, तं जहा - पच्चखे ....... जहा गदारे तहा यव्व' | 2 भग० शु० ५. ३० ३. भाग २. पृ० २११ /

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