Book Title: Pramanmimansa
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad

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Page 168
________________ २२ [ पृ० ७. प्रमाणमीमांसायाः जिनभद्र क्षमाश्रमण ने अपने प्रति विस्तृत भाष्य में द्विविध प्रमाण विभाग में आगमिक पक्ष ज्ञानविभाग का तर्कपुरःसर समावेश बतलाया और आर्यरक्षितस्थापित तथा नन्दीकार द्वारा स्त्रीकृत इन्द्रियजन्य- नोइन्द्रियजन्य रूप से द्विविध प्रत्यक्ष के वर्णन में आनेवाले उस fara saafरक और पारमार्थिक प्रत्यक्ष ऐसा नाम देकर सबसे पहले परिहार किया- "मोभयं जं तं संववहारपश्चकखं |”--विशेषा० भा० गा० ५- जिसे प्रतिवादी पार्किंग जैन सार्किनी को भावले भिया घरते थे। विरोध इस तरह बतलाया जाता था कि जब जैनदर्शन अस-आत्माश्रित ज्ञान को ही प्रत्यक्ष कहता है तब उसकी प्रक्रिया में इन्द्रिय ज्ञान का प्रत्यक्षरूप से स्थान पाना विरुद्ध है । क्षमाश्रममाजी ने यह सब कुछ किया फिर भी उन्होंने कहीं यह नहीं बतलाया कि जैन प्रक्रिया परोक्ष प्रभाग के इतने भेद 10 मानती है और वे अमुक हैं । इस तरह अभी तक जैन परंपरा में श्रागमिक ज्ञान चर्चा के साथ ही साथ, पर कुछ प्रधानता से प्रमाणचर्चा हो रही थी, फिर भी जैन तार्किकों के सामने दूसरे प्रतिवादियों की ओर से यह प्रश्न बारवार आता ही था कि जैन प्रक्रिया अगर अनुमान, आगम आदि दर्शनान्तर प्रसिद्ध प्रमाणों को परोक्ष प्रमागारूप से स्वीकार करती है तो उसे यह स्पष्ट करना 15 आवश्यक है कि वह परोक्ष प्रमाण के कितने भेद मानती है, और हरएक भेद का सुनिश्चित पं० लक्षण क्या है ? | जहाँ तक देखा है उसके आधार से निःसंदेह कहा जा सकता है कि उक्त प्रश्न का Rare सबसे पहिले भट्टारक अफलङ्क ने दिया है। और वह बहुत ही स्पष्ट तथा सुनिश्चित है। अकलङ्क ने अपनी लघोयलयो में बतलाया कि परोक्ष प्रमाण अनुमान, प्रत्यभिज्ञान, 30 मर, तर्क और आगम ऐसे पाँच भेद हैं। उन्होंने इन भेदों का अक्षय भी स्पष्ट बाँध दिया । हम देखते हैं कि मकलङ्क के इस स्पष्टोकरण ने जैन प्रक्रिया में आगमिक और तार्किक ज्ञान चर्चा में बारबार खड़ो होनेवाली सब समस्याओं को सुलझा दिया । इसका फल यह हुआ कि अङ्क के उत्तरवर्ती दिगम्बर श्वेताम्बर सभी तार्किक वसी अकलङ्कदर्शित रास्ते पर ही चलने लगे। और उन्हीं के शब्दों की एक या दूसरे रूप से लेकर यत्र तत्र विकसित कर 25 अपने अपने छोटे और बृहत्काय ग्रन्थों को लिखने लग गये। जैन तार्किकमूर्धन्य यशो fare ने भी उसी मार्ग का अवलम्बन किया है । यहाँ एक बात जान लेनी चाहिए कि जिन अकलक ने परोक्ष प्रमाण के भेद और उनके लक्षणों के द्वारा दर्शनान्तरप्रसिद्ध अनुमान, श्रर्थापति, उपमान आदि सब प्रमाणों का जैन प्रक्रियानुसारी निरूपण किया है वेही प्रकलङ्क राजवार्त्तिककार भी हैं, पर उन्होंने अपने वार्शिक में दर्शनान्तरप्रसिद्ध उन प्रमायों का 30 समावेश यत्रयी के अनुसार नहीं पर तस्वार्थसाध्य और सर्वार्थसिद्धि के अनुसार किया है ऐसा कहना होगा। फिर भी क भाष्य और सिद्धि की अपेक्षा अकलङ्क ने अपना १ "ज्ञानमा मतिज्ञा चिन्ता चाभिनिवेशनम् । प्रानामयोजनाच्छे भुतं शब्दानुयोजनात् । aat० ३ १. स्वषि० ३. १ । २ “सूरा -अकलङ्कन वार्त्तिककारेण" सिद्धि चि० टी० पृ० २५४. B. !

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