Book Title: Pramanmimansa
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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भाषाटिप्पणानि ।
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प्रकार कुछ दूसरा ही बतलाया है ( राजा००५४)। अकलङ्क ने परोक्ष प्रमाण के पांच भेद करते समय यह भ्यान अवश्य रक्खा है कि जिससे उमास्वाति आदि पूर्वाचार्यों का समन्वय विरुद्ध न हो जाय और आगम तथा नियुक्ति आदि में मतिज्ञान के पर्यायरूप से प्रसिद्ध स्मृति, सञ्ज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध इन शब्दों की सार्थकता भी सिद्ध हो जाय । ast कारण है कि अकलङ्क का यह परोक्ष प्रभाग के पंच प्रकार तथा उनके लक्षण कथन का प्रयत्न अवापि सकल जैन सार्किकमान्य रहा । आ० हेमचन्द्र भी अपनी मीमांसा में पराच के हो भेदों को मानकर निरूपणा करते हैं।
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०७. पं० १७.
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पृ० ७. पं० १० वैशेषिका : '- प्रशस्तपाद ने शाब्द- उपमान आदि प्रमाणों को अनुमान में ही समाविष्ट किया है। अतएव उत्तरकालीन तार्किको? मे वैशेference से प्रत्यक्षअनुमान दो ही प्रमाणों का निर्देश किया है । स्वयं कणाद का भी "एतेन शाब्द व्याख्यातम्- 10 वैशे० सू० १, २. ३- इस सूत्र से बढ़ी अभिप्राय है जो प्रशस्तशद, शङ्कर मिश्र आदि ने निकाला | विद्यानन्द प्रादि जैनाचार्यों ने भी वैशेषिकसम्मत प्रमाणद्वित्व का ही निर्देश ( प्रमाणप पृ० ६६ ) किया है तब प्रश्न होता है कि प्रा० हेमचन्द्र वैशेषिकमत से प्रभात्रय का कथन क्यों करते हैं ? । इसका कल नहीं है कि वैशेषिकसम्मत प्रमात्रित्व की परम्परा भी रही है जिसे भा: हेमचन्द्र ने लिया और प्रमाखद्वित्ववाली परम्परा का निर्देश 15 नहीं किया। सिद्धर्षिकृत न्यायावतारवृति में ( 3०६) हम उस प्रमाणत्रित्ववालो वैशेषिक परम्परा का निर्देश पाते हैं। वादिदेव ने तो अपने रत्नाकर ( पृ० ३१३, १०४१ ) में वैशेषिकसम्भवरूप से द्वित्व और त्रित्व दोनों प्रमायसंख्या का निर्देश किया है।
पृ० ७. पं० ११ 'साङख्या :- तुलना सांख्यका० ४ | पं० ११' नैयायिका: ' तुलना-न्यायसू० १.१.३ ३
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पृ० ७. पृ० ७. प्रकरणप० पृ० ४४.
पं० १२
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प्राभाकराः ' तुलना - "तत्र पञ्चविधं मानम्... इति गुरोर्मतम् -
पृ० ७. पं० १२ ' भाडा - पुलना-"अत: पहेंव प्रमाणानि - शास्त्री० पृ० २४६ ॥
पृ० ७. पं० १७ ' अश्नुते 'प्रत्यक्ष शब्द की व्युत्पत्ति में 'अ' पद का 'इन्द्रिय' अर्थ मानने की परम्परा सभी वैदिक दर्शनों तथा बौद्ध दर्शन में एक सी है। उनमें से किसी दर्शन 25 में 'ऋ' शब्द का श्रात्मा अर्थ मानकर व्युत्पत्ति नहीं की गई है । दर्शने' के अनुसार इन्द्रियाश्रित ज्ञान ही प्रत्यक्षरूप से फलित होता है। और तदनुसार उनको इन्द्रियाश्रित प्रत्यक्ष माने जानेवाले ईश्वरीय ज्ञान आदि के विषय में प्रत्यक्ष का प्रयोग उपचरित ही मानना पड़ता I
अतएव वैदिक-ata
१ "शब्दोपमानयनिक पृथक प्रामाण्यसिध्यते । "मुक्तावली का० १४० ।
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