Book Title: Pramanmimansa
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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न्याय वैशेषिक आदि सर्वप्रधान वैदिक दर्शनों के प्रभाव के कारण बौद्ध भिक्षु तो पहिले ही से अपनी पिटकोचित मूल मर्यादा के बाहर बादभूमि और तदुषित तर्क-प्रमाणवाद की ओर झुक ही गये थे। क्रमश: जैन भिक्षु भी वैदिक और बौद्धदर्शन के सर्कवाद के असर से भरी न रह सके अतएव जैन प्राचार्यो में जैन परम्परा में शानविमा की भूमिका के अपर प्रमाणविभाग की स्थापना की और प्रतिवादी विद्वानों के साथ उसी प्रमाणविभाग को लेकर गोष्टी या चर्चा करने लगे। आर्यरहित ने प्रत्यक्ष-अनुमान प्रादिरूप से चतुर्विध प्रमाणविभाग दर्शाते समय प्रत्यक्ष के वर्णन में ( अनुयो० ४० २११ } इन्द्रियप्रत्यक्षरूप मतिज्ञान का और आगमप्रमाण के वर्णन में श्रुतज्ञान का स्पष्ट समावेश सूचित कर ही दिया था फिर भी प्रागमिक-तार्किक जैन आचार्यों के सामने बराबर एक प्रश्न प्राया ही करता था कि अनुमान, नपमान, अर्थापत्ति प्रादि दर्शनान्तरप्रसिद्ध प्रमाणों को जैनझामप्रक्रिया मानती है 10 या नहीं। अगर मानवी है तो धनका स्वतन्त्र निरूपण या समावेश उसमें स्पष्ट क्यों नहीं पाया जाता है। इसका जवाब जहाँ तक मालूम है सबसे पहिले मास्वाति ने दिया है (तस्वार्थमा० १.१२ ) कि वे अनुमानादि दर्शनाम्तरीय सभी प्रमाण मति, अस जिन्हें हम परोक्ष प्रमाण कहते हैं उसी में अन्तर्भूत हैं। उमास्वाति के इसी अवाम का अक्षरश: अनुसरण पूज्यपाद ने ( सर्वार्थसि० १.१२ ) किया है। पर उसमें कोई नया विचार या विशेष स्पष्टता 10 नहीं की।
चतुर्विध प्रमाण विभाग की अपेक्षा विविध प्रमाविभाग जैन प्रक्रिया में विशेष प्रतिष्ठा पा चुका था और यह हुमा भी योग्य । अलपत्र नन्दीसूत्र में उसी द्विविध प्रमाणविभाग को लेकर ज्ञानचर्चा विशेष विस्तार से हुई। नन्दोकार में अपनी शानचर्चा की भूमिका तो रची विविध प्रमाणविभाग पर फिर भी उन्होंने आरक्षित के चतुर्विध प्रमागा- 20 विभागाश्रित वर्णन में से मुख्यतया वो तस्व लेकर अपनी चर्चा की। इनमें से पहिला तत्व से यह है कि लोक जिस इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष समझते व कहते हैं और जिसे जैनेतर सभी तार्किको ने प्रत्यक्ष प्रमाण हो माना है, उसको जैन प्रक्रिया में भी प्रत्यक्ष प्रमाण कहकर प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद कर दिये । मन्दीसू ३) जिससे एक में उमास्वातिकथित अवधि आदि मुख्य प्रमाण रहे और दूसरे में इन्द्रियजन्य झान भी प्रत्यक्षरूप से रहे। 25 दूसरा तश्व यह है कि जिसे दर्शनान्तर आगम प्रमाण कहते हैं वह वस्तुतः श्रुतज्ञान ही है और परोक्ष प्रभाव में समाविष्ट है।
यपि प्रागमिक शानचर्चा चलती रही फिर भी जैन विचारप्रक्रिया में तार्किकता बल पकड़ने लगी। इसी का फल न्यायावतार है। उसमें द्विविध प्रमाणविभाग लेकर तार्किक शैली से ज्ञान का निरूपण है । उसका मुख्य उद्देश्य जैन प्रक्रियानुसारी अनुमान-न्याय 80 को बतलाना....यह है। हम देखते हैं कि न्यायावतार में परोक्षप्रमाण के भेद के वर्णन ने ही मुख्य जगई रोकी है फिर भी इसमें यह नहीं कहा है कि जैन प्रक्रिया परोक्षप्रमाण के अमुक और इतने ही मानती है जैसा कि आगे आ कर अन्य प्राचार्यों ने कहा है।