Book Title: Pramanmimansa
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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पृ० १०. पं० १४ ]
भाषाविनि ।
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प्राप्ति के योगियों की नाके को पूर्ण ज्ञान शेष नहीं रहता, क्योंकि वह ज्ञान ईश्वरज्ञान की तरह नित्य नहीं पर योगजन्य होने से अनित्य है ।
सांख्य, योग? और वेदान्त दर्शनसम्मत सर्वज्ञत्व का स्वरूप वैसा ही है जैसा न्यायवैशेषिकसम्मत सर्वज्ञत्व का । यद्यपि योगदर्शन न्याय-वैशेषिक की तरह ईश्वर मानता है तथापि वह न्याय-वैशेषिक की तरह वेतन आत्मा में सर्वज्ञत्व का समर्थन न कर सकने के कारण विशिष्ट बुद्धिश्वर में ही ईश्वरीय सर्वज्ञरव का समर्थन कर पाता है। सांख्य, योग और वेदान्त में बौद्धिक सर्वशत्व की प्राप्ति भी मोक्ष के वास्ते अनिवार्य वस्तु नहीं है, जैसा कि जैन दर्शन में माना जाता है। किन्तु न्याय-वैशेषिक दर्शन की तरह वह एक योगविभूति मात्र होने से किसी-किसी साधक को होती है।
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सर्ववाद से सम्बन्ध रखनेवाले हज़ारों वर्ष के भारतीय दर्शनशास्त्र देखने पर भी 10 यह पता स्पष्टरूप से नहीं चलता कि अमुक दर्शन ही सर्वशवाद का प्रस्थापक है। यह भी fare से कहना कठिन है कि सर्वज्ञत्व की चर्चा शुद्ध तत्रचिन्तन में से फलित हुई है, या साम्प्रदायिक भाव से धार्मिक खण्डन-मण्डन में से फलित हुई है । यह भी प्रमाण बतलाना सम्भव नहीं कि ईश्वर, ब्रह्मा मादि दिव्य आत्माओं में माने जानेवाले सर्वज्ञत्व के विचार से मानुषिक सर्वज्ञत्व का विचार प्रस्तुत हुआ, या बुद्ध-महावीरसदृश मनुष्य में 15 माने जानेवाले सर्वज्ञत्व के विचार प्रान्दोलन से ईश्वर, ब्रह्मा मादि में सर्वज्ञत्व का समर्थन किया जाने लगा था देव-मनुष्य अभय में सर्वेक्षत्व माने जाने का विचारप्रवाह परस्पर निरपेक्ष रूप से प्रचलित हुआ ? | यह सब कुछ होते हुए भी सामान्यरूप से इतना कहा जा सकता है कि यह चर्चा धर्म-सम्प्रदायों के खण्डन-मण्डन में से फलित हुई है और पीछे से उसने तत्वज्ञान का रूप धारण करके तास्विक चिन्तन में भी स्थान पाया है। और वह तटस्थ 20 Rafast a faचारणीय विषय बन गई है । क्योकि files जैसे पुरातन और प्रबल वैदिक दर्शन के सर्वशत्व सम्बन्धी अस्वीकार और शेष सभी वैदिक दर्शनों के सर्वशत्व सम्बन्धी स्वीकार का एक मात्र मुख्य उद्देश्य यही है कि वेद का प्रामाण्य स्थापित करना जब कि जैन, बौद्ध आदि मनुष्य सर्वज्ञत्ववादी दर्शनों का एक यह उद्देश है कि परम्परा से माने जाने वाले वेदप्रामाण्य के स्थान में इतर शास्त्रों का प्रामाण्य स्थापित करना और वेदों का अप्रामाण्य | 26 जब कि वेद का प्रामाण्य- अप्रामाण्य ही असर्वज्ञबाद, देव सर्वज्ञवाद और मनुष्य- सर्वज्ञवाद की चर्चा और उसकी दलीलों का एकमात्र मुख्य विषय है तब धर्म-संप्रदाय को इस तस्वचर्चा का उत्थानबोज मानने में सन्देह को कम से कम अवकाश f
"तारकं सर्वविषयं सर्वथा विषयमक्रमं चेति विवेक ज्ञानम् ||" योगसू० ३.५४ ।
२ “निर्धूतरजस्तमेोमलस्य बुद्धिसत्त्वस्थ परे वैशारद्ये परस्यां वशीकारसंज्ञायां वर्त्तमानस्य सत्पुरुषान्यताख्यातिमात्ररूपप्रतिष्ठस्य... सर्वज्ञातृस्वम्, सर्वात्मनां गुग्णानां शान्तादिताव्यपदेश्यधर्मत्वेन व्यवस्थितानामकमोपारूढं विवेकजं ज्ञानमित्यर्थः । " योगभा० ३. ४६ ।
३ " प्राप्त विवेकजज्ञानस्य अमाप्तविवेकजज्ञानस्य वा सरवपुरुषयेाः शुद्धिसाम्ये कैवल्यमिति । "--- योगसू० ३.५५ ।