Book Title: Pramanmimansa
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad

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Page 148
________________ प्रमाणमीमांसायाः [१०१.१० १८ विषय सूचित हो और जिसमें प्रन्थ का नामकरण भी पा जाय । जैसे पासवाल योगशाख का प्रथम सूत्र है 'अथ योगानुशासनम्, जैसे अकलंक ने 'प्रमाणसंग्रह' ग्रन्थ के प्रारम्भ में 'प्रमाणे इति संग्रहः' दिया है, जैसे विद्यानन्द ने 'प्रध प्रमाणपरीक्षा' इस वाक्य से ही 'प्रमावपरीक्षा का प्रारम्भ किया है। मा० हेमचन्द्र ने उसी प्रणाली का अनुसरण 5 फरके यह सूत्र रचा है। 'प्रथ' शब्द से शास्त्रारम्भ करने की परम्परा प्राचीन और विविध विषयक शासगामिनी है। जैसे "प्रथात दर्शपूर्णमासी व्याख्यास्यामः" ( आप० श्री. सू० १. १. १.), "अथ शब्दानुशासनम्" (पात. महा.), 'प्रथात धर्मजिज्ञासा' (जैमि० सू० १. १. १ ) इत्यादि । प्रा. हेमचन्द्र ने अपने काव्यानुशासन, छन्दोनुशासन की तरह इस ग्रन्थ में भी वही 10 परम्परा रक्खी है। पृ० १. पं० १८. 'अथ-इत्यस्य-अथ शब्द का 'अधिकार' अर्थ प्राचीन समय से ही प्रसिद्ध है और उसे प्रसिद्ध प्राचार्यों ने लिया भी है जैसा कि हम व्याकरणभाष्य के प्रारम्भ में “प्रथेत्ययं शब्दोऽधिकारार्थ:" ( १. १. १. पृ० ६ ) तथा योगसूत्रभाष्य में (१.१.) पाते हैं। इसके सिवाय उसका 'आनन्तर्य अर्थ मी प्रसिद्ध है जैसा कि शवर ने अपने 13 मीमांसाभाष्य में लिया है। शङ्कराचार्य ने 'आनन्वय' अर्थ तो लिया पर 'अधिकार' अर्थ को प्रसङ्गत समझकर स्वीकृत नहीं किया। शङ्कराचार्य को अथ शब्द का "मङ्गला अर्थ लेना इष्ट था, पर एक साथ सीधे तौर से दो अर्थ लेना शास्त्रीय युक्ति के विरुद्ध होने से उन्होंने आनन्यर्थिक 'अथ' शब्द के श्रवण को ही मत मानकर 'मङ्गल' अर्थ लिये बिना हो, 'मङ्गल' का प्रयोजन सिद्ध किया है। योगभाष्य के और शाङ्करभाष्य के प्रसिख 20 टीकाकार बाचस्पति ने तस्वदेशारदी और भामती में शङ्करोक्त 'प्रथाशब्दश्रुति की मङ्गलप्रयो अनसा- मृदङ्ग, शङ्ख प्रादि ध्वनि के मांगलिक क्षण की उपमा के द्वारा -पुष्ट की है और साथ ही जलादि अन्य प्रयोजन के वास्ते लाये जानेवाले पूर्ण जलकुम्भ के मांगलिक दर्शन की उपमा देकर एक अर्थ में प्रयुक्त 'प्रय' शब्द का अर्थान्तर बिना किये ही उसके श्रवण की माङ्गलिकता दरसाई है। Resistoyetups h itading t ......... १"सत्र लोकेऽयमयशब्दो वृत्तादनन्तरस्य प्रक्रियाओं दृष्टः-.--शापरभा० १.१.१. २ "तप्राथशब्द: प्रानन्तर्यार्थः परिगृह्यते माधिकारार्थः, ब्रह्मजिज्ञासाया अनधिकार्यत्वात् , मङ्गलस्य च वास्यार्थे समन्वयाभावात् । अर्थान्तरप्रयुक्त एवं प्रथशब्द'; श्रुत्या मङ्गलप्रयोजनो भवति"--- प्र० शासकरभा० १.१.१. ३ "अधिकारार्थस्य चायशब्दस्यान्यार्थ नीयमानोदकुम्भदर्शनमिव श्रवणं मङ्गलायोपकल्पत इति मन्तव्यम-तत्वयै०१.१, सन चेह मङ्गलमयशब्दस्य पाच्य वा लक्ष्य था, किन्तु मृदभ्यनिवदथराम्दश्रवणमात्रकार्यम् । तथा च 'प्रोकारवायशब्दश्च दावेतो ब्रमणः पुरा कर मिया विनियाँती तस्मान्मानलिकावुभौ ॥' अर्थान्तरेवानन्तर्यादिषु प्रयुक्तोऽथराब्दः अन्या श्रषणमात्रेण वेणुगोसाध्वनिवन्मङगलं कुर्वन् , मङगलप्रयोजनो भवति अन्यार्थमानीयमानेादकुम्भदर्शनवत्" - भामती १.१.१.

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