Book Title: Pramanmimansa
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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IIIII.maratiwodaempitmasamisansar
आभ्यन्सर स्वरूप होकर भी एक दूसरे के असर से खाली नहीं । प्रधान परिणाम या श्रम परिणाम बाद से इस बाद में फर्क यह है कि इसमें उक्त दोनों वादों की तरह किसी भी स्थामी द्रव्य का अस्तित्व नहीं माना जाता । ऐसा शंकु या कीलक स्थानीय स्थायी द्रव्य न होते हुए भी पूर्व परिणामक्षण का यह स्वभाव है कि वह नष्ट होते होते दुसरे परिणाम क्षण को पैदा करता ही जायगा। अमर्याद वर परिणाम- निनाशोख पूर्व परिणाम के अस्तित्वमात्र के आश्य से माप ही आप निराधार उत्पन्न हो जाता है। इसी मान्यता के कारण यह प्रतीत्यसमुत्पादबाद फहलासा है। वस्तुतः प्रतीत्यसमुत्पादवाद परमाणुवाद भी है और परिणामवाद भी । फिर भी तारिषक रूप में वह दोनों से भिन्न है ।
४ विवर्तवाद-विवर्तवाद के मुख्य दो भेद है (M) नित्याविवर्त और (ब) क्षणिकविज्ञान विवर्त। दोनों विवर्तवाद के अनुसार स्थूल विश्व यह निरा भासमान या कल्पनामात्र है, जो माया या वासनाजनित है। विवर्तवाद का अभिप्राय यह है कि जगत् या विश्व कोई ऐसी वस्तु नहीं हो सकती जिसमें बाह्य और आन्तरिक या स्थूल और सूक्ष्म सत्त्व अलग अलग और खण्डित हों। विश्व में जो कुछ वास्तविक सत्य हो सकता है वह एक ही हो सकता है क्योंकि विश्व वस्तुतः अलण्ड और अविभाज्य ही है। ऐसी दशा में ओ बाबत्व-आन्तरत्व, इस्वत्व-दीर्घत्व, दुरत्व-समीपत्त्व आदि धर्मद्वन्द्र मालम होते हैं वे मात्र काल्पनिक हैं। अतएव इस बाद के अनुसार लोकसिद्ध स्थूल विश्व केवल काल्पनिक
और पातिमासिक सत्य है। पारमार्थिक सत्य उसकी तह में निहित है जो विशुद्ध ध्यानगम्य होने के कारण अपने असली स्वरूप में प्राकृत जनों के द्वारा प्राश नहीं।।
न्याय-वैशेषिक और पूर्व मीमांसक आरंभवादी है । प्रधानपरिणामवाद सांख्य-योग और चरक का है । ब्रमपरिणामवाद के समर्थक भर्तृपपश्च आदि प्राचीन वेदान्ती और आधुनिक वल्लभाचार्य हैं। प्रतीत्यसमुत्पादवाद बौद्धों का है और विवर्तवाद के समर्थक शाबर वेदान्ती, विज्ञानवादी और शून्यवादी हैं।
ऊपर जिन वादोंका वर्णन किया है उनके उपादानरूप विचारोंका ऐतिहासिक क्रम संभवतः ऐसा जान पड़ता है-शुरू में वास्तविक कार्यकारणभाव की खोज जड़ जगत तक ही रही । वहीं तक वह परिमित रहा । क्रमशः स्थूल के उस पार चेतन तत्व की शोध-कल्पना होते ही दृश्य और जड़ जगत में प्रथम से ही सिद्ध उस कार्यकारणभाव की परिणामिनिस्यता रूप से चेतन तत्व तक पहुँच हुई। चेतन भी जड़ की तरह अगर परिणामिनिस्य हो तो फिर दोनों में मन्तर ही क्या रहा ? इस प्रश्न ने फिर चेतन को कायम रख कर उसमें कूटस्थ नित्यता मानने की ओर तथा परिणामिनिस्यता या कार्यकारणभाव को जड अगत तक ही परिमित रखने की ओर विचारकों को प्रेरित किया। चेतन में मानी जानेवाली कूटस्थ नित्यता का परीक्षण फिर शुरू हुवा । जिसमें से अन्ततोगत्वा केवल कूटस्थ नित्यता ही नहीं परिक जडत परिणामिनित्यता भी लत होकर मात्र परिणमन धारा ही शेष रही। इस पकार एक तरफ आत्यन्तिक विश्लेषण ने मात्र परिणाम या क्षणिकत्व विचार को जन्म दिया