Book Title: Pramanmimansa
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
View full book text
________________
Sap
pongestaneswwwsexdesi
Sोट
सामm இப்பitithaiபiபப்பா பயம்க்க
amagran
भारतीय प्रमावशाल में प्रमाणमीमांसा का स्थान
२३ हुए भी किसी एक को पूर्ण सत्य नहीं कह सकते । पूर्ण सत्य दोनों अनुभवों का समु. बित समन्वय ही है । क्योंकि इसी में सामान्य और विशेषात्मक वन वृक्षों का अबाधित अनुभव समा सकता है। यही स्थिति विश्व के सम्बन्ध में सद्-अद्वैत किंवा सद्-द्वैत दृष्टि की भी है।
कालिक, दैशिक और देश-कालातीत सामान्य विशेष के उपर्युक्त अद्वैत द्वैतवाद से आगे बढ़ कर एक कालिक सामान्य-विशेष के सूचक नित्यत्ववाद और क्षणिकत्ववाद भी हैं। ये दोनों बाद एक दूसरे के विरुद्ध ही जान पड़ते हैं, पर अनेकान्त दृष्टि कहती है कि वस्तुतः उनमें कोई विरोध नहीं । अब हम किसी तत्व को तीनों कालों में अलण्डरूप से अर्थात् अनादि-अनतरूप से देखेंगे तब वह अखण्ड प्रवाह रूप में आदि-अंत रहित होने के कारण नित्य ही है । पर इम अब उस अखण्ड प्रवाह पतित तरव को छोटे बड़े आपेक्षिक काल भेदों में विभाजित कर लेते हैं, तब उस उस काल पर्यंत स्थायी ऐसा परिमित रूप ही नजर आता है, जो सादि भी है और सान्त भी। अगर विवक्षित काल इतना छोटा हो जिसका दूसरा हिस्सा बुद्धिशस्त्र कर न सके तो उस काल से परिच्छिन्न वह तत्वगत प्रावाहिक अंश सबसे छोटा होने के कारण क्षणिक कहलाता है । नित्य और क्षणिक ये दोनों शब्द ठीक एक दूसरे के विरुद्धार्थक हैं। एक अनादि-अनन्त का और दूसरा सादि-सान्त का भाव दरसाता है। फिर भी हम अनेकान्तष्टि के अनुसार समझ सकते हैं कि जो तस्व अखण्ड प्रवाई की अपेक्षा से नित्य कहा जा सकता है वही तत्त्व खण्ड खण्ड क्षणपरिमित परिवर्तनो व पर्यायों की अपेक्षा को क्षणिक भी कहा जा सकता है। एक बाद की आधारष्टि है अनादि-अनंतता की दृष्टि । अब दूसरे की आधार है सादि-सान्तताकी दृष्टि । वस्तु का कालिक पूर्ण स्वरूप अनादि-अनंतता और सादि-सान्तता इन दो अंशों से बनता है। अतएव दोनों सृष्टियाँ अपने अपने विषय में यथार्थ होने पर भी पूर्ण प्रमाण तमी बनती हैं जब वे समन्वित हो ।
इस समन्वयको बचान्त से भी इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है । किसी एक वृक्षका जीवन-व्यापार मूल से लेकर फल तक में कालक्रम से होने वाली बीज, मूल, अंकुर, स्कन्ध, शाखा-पतिशाखा, पत्र, पुष्प और फल आदि विविध अवस्थाओं में होकर ही प्रवाहित और पूर्ण होता है । अब हम अमुक वस्तु को शुक्षरूप से समझते हैं तब उपर्युक्त सत्र अवस्थाओं में प्रवाहित होनेवाला पूर्ण जीवन-व्यापार ही अखण्डरूप से मनमें आता है। पर जब हम उसी जीवन-व्यापार के परस्पर भिन्न ऐसे क्रममावी मूल, अंकुर स्कन्ध स्मादि एक एक अंश को ग्रहण करते हैं तब वे परिमित काललक्षित अंश ही हमारे मनमें आते हैं। इस प्रकार हमारा मन कभी तो उस समूचे जीवन-व्यापार को अखण्ड रूप में स्पर्श करता है और कभी उसे खण्डित रूप में एक-एक अंश के द्वारा । परीक्षण करके देखते हैं तो साफ जान पड़ता है कि न तो अखण्ड जीवन-व्यापार ही एक मात्र पूर्ण वस्तु है या काल्पनिक मात्र है और न खण्डित अंश ही पूर्ण वस्तु है या काल्पनिक । भले ही उस अखण्ड में सारे खण्ड और सारे खण्डों में वह एक मात्र अखण्ड समा जाता हो फिर भी वस्तु का पूर्ण स्वरूप तो अखण्ड और खण्ड दोनों में ही पर्यवसित होने के कारण दोनों पहलुओं से गृहीत होता है। जैसे वे
ப்